पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४९८

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सब मलिन कर्म उसम भस्म हा जायगे । उम आनन्द के समीप पाप जान से डरेगा।"-कहता हुआ ब्रह्मचारी माग बढ़ गया । वह जैस मवरी जगाने के निए आया था। उस ठहरन या अवसर नही। ठीक उमी ममय विहारी दुसरी मोर स एव भिक्षु आ गया। उसन कुछ गेप स रहा "भगिनी । नुमन विनय का उल्लघन पिया है। एा अपरिचित पायण्ड से तुमका ऐमा व्यवहार नहीं करना चाहिए । मै मंघ म इमरी सूचना दंगा । जाओ भीतर जाना।' "पया पिर अन्धकार है गह्वर म उमी निराशा र वापत म । उनी दम घाटन वाले विषाक्त वायुमण्डन म । ना, मैं नही जाऊंगा। मुझे तुम्हाग धर्म नही चाहिए । मुझे छाड दा। -इरावती जैम ग रही थी। "भगिनी । तुम उम पापण्ड सी पापमनि म प्रभावित हो गईहा। तारा, पापदेशना करना होगा।' सा भीषण जाल फैला है। विवश प्राणी जैम पाप के कुहरे म अपन यो बैंक लेन के लिए बाध्य किया जा रहा है । "मार्य । में स्वीकार करती है कि मैन जपन इस छोटे-से जीवन म कोई पाप नही किया । नही किया।" यह उत्तेजित होकर वाल रही थी। दूनरी भिक्षुपिया यहां जा पहुंची। भिक्षु न उनसे कहा-"इन्ह भीतर लिवा जाना। ___ इरावती और अन्य भिक्षुणियां भीतर चली गई । भिक्षु वही खडा रहा, वह किमी की प्रतीक्षा कर रहा था । महास्थविर धीरे-धीर टहलते हुए उसी स्थान पर जाये । भिक्षु के माय ही व आगे बढ़े । भिक्षु विनय मे कहने लगा-~-"आर्य भिक्षुणी-विहार की दशा झाचनीय है। किसी दिन मप को ही यह ले इवेगा। जभी मैंने देखा कि एक पाखण्ड ग्ही गडा हागर इरावती नाम का भिक्षुणी को अपने मत का निन्दनीय उपदेश दे रहा या । और वह भी मारह मुन रही थी।" "है और भी वहां कोई था ?" नही, वह अवेली थी।" महास्थविर कुछ सोचने लग । उनने मन म धर्म-महामात्र वाली वात घूमने लगी। इरावती पर पहला जभियोग लगाया जा चुका था। धर्म-महामार के सकेत पर उस सघ से प्रवाजनीय दड की व्यवस्था होन जा रही थी। फिर उसन यह उपद्रव किया। महास्थविर धम के अनुशासन मे उतने प्रयत्नशील नही थे, जितने सघ की सुव्यवस्था मे। राज अनुग्रह छोड़ने के लिए वे प्रस्तुत न थे। उन्होने कहा----"तुम अभी जाा, संघस्थविरा से कहो कि 'महास्थविर का आदेश है...' नही ..ठहरो, तुम इरावती के माथ उन्हे भी यही बुला लो, मैं यही खडा हूँ।" ४५० प्रसाद वाङ्मय