पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

प्राक्कथन जयशकर प्रसाद अपन समय के प्रयोगधर्मी रचनाकार थे । भारतेन्दु युगीन खुमारी से मुक्त होकर उन्होने नाटक और कविता क क्षेत्र मे ही नही कथा साहित्य के क्षेत्र में भी प्रयोग किया। १९२६ से १६२६ ई. के बीच प्रसाद के दृष्टिकोण मे यथार्थ के प्रति परिवर्तन दिखाई पडता है, जिसका प्रमाण 'प्रतिध्वनि', 'स्क दगुप्त' और 'चन्द्रगुप्त' में भी मिलता है । यह परिवतन उनकी मूल स्थापनाओ मे कम ससार की पहचान के स्तर पर ही अधिक हुआ है । साहित्य, समाज और मानव सस्कृति आदि उनके लिए अलग अलग प्रत्यय नही बल्कि प्रत्यय शृखलाएं हैं। उनकी प्रमुख समस्या है कि मनुष्य बिना किसी विकृति और अवराध क कैसे पूर्णता प्राप्त कर सकता है । केसे वह अपनी मुक्ति के साथसाथ दूसरो को मुक्त रख सकता है। वे प्रारम्भ से ही आनन्द को एक मूल्य मानकर चलते हैं और बुद्धि या विवेक को अपूर्णता का कारण मानते हैं । अपूर्णता का बोध ही प्रगति का लक्षण है और प्रसाद जी की प्रगति को अवधारणा देहात्मवादियो, वैज्ञानिक भौतिकवादियो और साम्यवादियो से नितान्त भिन्न हैं। इसलिए प्रसाद जी सास्कृतिक प्रगतिशीलता शब्द का व्यवहार करते हैं । जगत और जीव के प्रति उनका दृष्टिकोण अपने समकालीनो से नितान्त भिन है और इसलिए मनुष्य के सारे कृतित्व या हर प्रकार की अभिव्यक्ति को परिभाषा भी भिन्न है। प्रसाद जी के लिए साहित्य ही नहीं ससार का समग्र चिंतन दो स्पष्ट वां में विभक्त है, जिसकी पुरातात्विक मीमासा वरुण और इन्द्र के मूल सघर्षों में है। वे इन्द्र को आनन्द साहित्य, संगीत और नृत्य आदि से सम्बद्ध ललित कलाओ के प्रतीक के रूप म देखते हैं और इस तर्क से सारे एन्द्रिक बोध और सवेदनाएं भी इन्द्र से जुड़ जाती हैं। वरुण को उन्होने विवेक और बुद्धि की परम्परा से जोडा है क्योकि वह वैज्ञानिकता का प्रतीक है। प्रसाद जी के इस विवेचन के मूल मे 'सुखद खात्मको भाव को भी देखा जा सकता है और आत्मवशता और परवशता की परिभाषा भी खोजी जा सकती है । वस्तुत प्रसाद जी साहित्य को सास्कृतिक प्रक्रिया का एक अग मानते हैं । संस्कृति बोध प्राक्कथन ६