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उनको दृष्टि से साहित्य बोध से अलग नहीं है। विवेकवाद की यह धारा दुःख और दुःप से मुक्ति के उपायो को केन्द्र म मानने के कारण वाजपेयी जी के अनुसार साहित्य में आदर्शवादी विवेकवाद और यथार्थवादी विवेकवाद की प्रतिष्ठा करती है। रामायण के आदर्शात्मक विवेकवाद और महाभारत के पार्थवादी विवेकवाद के परिणाम प्रसाद जी के अनुसार लौकिक संस्कृत के क्लासिक और रोमाटिक धाराओ में तथा रासो, आल्हा एवं भक्तिकाल को विभिन्न रचनाओं में परिणत हए परंतु "विवेकवादी काव्यधारा मानव मे राम हैं-या लोकातीत परम शक्ति इसी के विवेचन मे लगी रही। मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है, यह बोध, यह रसानुभूति विवृत्त नहो ही सको।" ककाल, तितली और इरावती में विवेकवादी धारा के परिणाम यथार्थवादी रूप में वर्णित, कपित और दर्शित किये गये हैं। और अतत. मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है, इसकी प्रतिष्ठा करने की कोशिश भी की गई है। लेकिन उपन्यास मे इस कोशिश के बावजूद कई प्रश्न और प्रश्नों के उत्तर प्रसाद स पहले के सामाजिक स्थिति और उसके अभिव्यक्ति विधानो में पूछे गए प्रश्नो के उत्तरों से भिन्न हैं और यही भिन्नता प्रसाद के ककाल और तितली को महत्त्वपूर्ण उपन्यास बनाती है। मेरी राय में इस दृष्टि से ककाल अधिक महत्त्वपूर्ण और युगान्तरकारी है अपेक्षाकृत वितती के । परंतु इस प्रकार के प्रश्नोतरों को समझने के पूर्व प्रसाद के आदर्श और यथार्थ सम्बन्धी दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है क्योकि प्रसाद जी इस सम्बन्ध मे स्वय भी वरुण और इन्द्र को कई परिणतियो को एक तर्कक्रम में रखकर देखना चाहते हैं। कृति, विकृति और सस्कृति के तर्क से दो प्रतिगामी धाराओ के मिलने से उत्पन्न नपी धारा यथार्थ और जोवन्त होती है क्योकि वह किसी दवाव का नही प्रक्रिया का परिणाम होती है । "भौगोलिक परिस्थितियां और काल को दीर्घता तथा उसके द्वारा होने वाले सौन्दर्य सम्बन्धी विचारो का सतत अभ्यास एक विशेष ढंग की रुचि उत्पन्न करता है, और वही रुचि सौन्दर्य अनुभूति की तुला बन जाती है, इसी से हमारे सजातीय विचार बनते हैं और उनमे स्निग्धता मिलती है । इसी के द्वारा हम अपने रहन-सहन, अपनी अभिव्यक्ति का सामूहिक रूप से संस्कृत रूप में प्रदर्शन कर सकते हैं। यह संस्कृति विश्ववाद को विराधिनी नहीं; क्योकि इसका उपयोग तो मानव समाज में आरभिक प्राणित्व-धर्म में सीमित मनोभावो को सदा प्रशस्त ओर विकासोन्मुख बनन के लिए होता है। सस्कृति मन्दिर, गिरजा और मस्जिद विहीन प्रान्तो मे अतः प्रतिष्ठित होकर सौन्दर्य बोध को बाह्य सत्तामओ का मजन करती है। संस्कृति का सामूहिक १०: प्रसाद वाङ्मय