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"मेरा अनुराध ?" "और नही तो क्या ?" "तव तुम मेरे अनुरोध को इतना मानने लगे! किन्तु अग्निमित्र । मै तुम्हारी मना की सहायता नहीं चाहती । मैं तुम्हे...केवल तुम्हारी सहायता इस ससार के मुख-दुख में चाहती हूँ। कालिन्दी को और कुछ नही चाहिए। देखो, मगध का साम्राज्य तुम्हारा होगा और तुम मेरे, केवल मेरे हो जाओ। में जीवन में निष्ठुर कल्पना लेकर ही जीवित हो रही थी, किन्तु तुमने उसमे न जाने कहाँ से माधुर्य को पुट लगा कर उसे कैसा कुछ बना दिया है।" "वह भ्रम भी हो सकता है कालिन्दी । मुझमे जिसने मिठास भर दी थी, वही न जाने क्या हो गई ! निष्ठुर ! क्रूर । किन्तु जाने दो, उन सब बातो का अभी अवसर नही; फिर जब कभी वह क्षण आवेगा तो देखा जायगा। अभी तो हम लोग एक कर्तव्य के लिए तत्पर सहकारी ही हो सकते हैं। चलो, तुमको जो निधि का भेद नही मालूम है, वह भी बता दूं।" ___अग्निमित्र उठा और दीर्घ श्वास लेकर कालिन्द्री भी उठ खडी हुई। दोनो धीरे-धीरे नन्दी के पास आये। अग्निमित्र ने पट्कोण के विंदु पर अंगूठा रख कर दवाया। पास की ही एक पटिया झूल पडी। अग्निमित्र ने कहा-"लो, यही निधि का गुप्त द्वार है । अब तुमको जाना हो तो भीतर जाओ।" "नही, इसे बन्द कर दो; अभी नही, फिर कभी साथ ही चलूंगी। देखो, कोई इधर ही आ रहा।" कालिन्दी ने धीरे से कहा । अग्निमित्र ने फिर खटका दवाया, पटिया अपने स्थान पर आ लगी । फिर दोनो सशक आगन्तुक की ओर देखने लगे। कालिन्दी के सकेत करने पर अग्निमित्र एक ओर छिप गया और आगन्तुक ने समीप आकर चिल्लाकर कहा-"है, यही है।" साथ ही कई सैनिक और आ गये । कालिन्दी तनकर खडी हो गई और तीये स्वर से पूछा "तुम लोग किसको खोजते हो?" "तुम्ही को।" "मुझको, गगाधर की परिचारिका कालिन्दी को । भला क्यो, मैं सून भो?" "अरे ! तुम इस मदिर की परिचारिका हो।" "और नही तो क्या है?" "यहां कोई भिषणी नही ह ?" "नही, सामने कुटो में मेरी रुग्णा बहन है । और रोई नहीं।" "उल्का ले आओ।" पहले आगन्तुक ने कहा । देखते-देखते रई सैनिकान इरावती : ४२५