पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५०२

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समझा। कालिन्दी के मुंह से निकला-"हां, वह इरावती से ही प्रेम करता है, तव ? और वह भी तो नही अग्निमित्र को मुझसे कोई छीन नही सकता।" सहसा वह घूम पडी । देखा तो अग्निमित्र उदास और थका-सा उसी के पीछे बैठा था। "अरे तम आ गये? "हाँ कालिन्दी "इरावती का पता नही लगा न ? "यह तुमसे किसने कहा ?" "वही जो सब वाते मुझे बता जाता है । मेरा गुप्तचर ।' -कहकर वह मुस्कुरा उठी। "तब तो इरावती का पता तुमको अवश्य मालूम होगा । ---अग्निमित्र ने कुछ व्यग से कहा। "हो भी सकता है । परन्तु क्या मैं तुम्हे बता दूंगी ?" "तुम मुझे अवश्य बता दोगी, ऐसी निर्दय तुम नही हो !' ___ वाह रे । तुम्हारा विश्वास ! कह कर वह गगा के किनारे की ओर चली और धीरे-धीरे नीचे उतरने लगी। अग्नि भी उठा । नीचे अन्धकार घना हो रहा था । वह भी कालिन्दी के पीछे चला-जल के समीप एक पत्थर पर कालिन्दी बैठ गई । उमने अग्निमित्र से कहा-"आओ, बहुत थके हो, बैठो।' अग्निमित्र समीप ही बैठ गया । कुछ काल तक दोना ही चुप रहे । कालिन्दी उंगली से जल की धारा काट रही थी, किन्तु वह कटती थी ? हाँ उंगली ही शीतल जल से चारा ओर धिरी रही । उसने कहा "तो आज उसका उत्तर मुझे दोगे न ?" "तो फिर कहो न?' "बृहस्पति का विरोध करन म, मैं तुम्हारा सहायक हैं। उसके अत्याचार "इरावती पर जो उसने किया है न ?' कहकर कालिन्दी फिर कुछ सोचने लगी। "और मुझ पर नही?" "तुम तो मगध के महानायक आज ही बने हो।' "हाँ अश्वारोही सेना का मैं प्रधान हूँ। किन्तु नही, वह पिता को आज्ञा थी और तुम्हारा अनुरोध "