पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१०

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और करेगा तो अभी नही, ठहर कर। तब से एक नोद ले लूं, फिर तो रात भर जागता रहूंगा।" धनदत्त साने लगा, और चन्दन तो पहले से ही। आजीवक ने सोचा-"कितनी दुश्चिन्ताएं है इसे ।" टहलने लगा ! रात घनी होती जा रही थी। अब पथिको का आना-जाना बन्द हो गया। किन्तु उसे सन्दह हुआ, कुछ मनुष्यो क उधर ही आने का शब्द क्रमश समीप होने लगा। आजीवक भी वही बैठ गया। कुछ समय तक वह चुप रहा, फिर तो शिविकावाहको की 'हूँ हूँ' स्पष्ट सुनाई पडने लगी। वाहको ने शिविका चैत्य-वृक्ष की छाया मे रख दी। वे विश्राम करने लगे। साथ के दो सैनिक भी वही बैठ गये। उन्हाने देखा तीन व्यक्ति पहले से वही पर हैं। सैनिक ने ऊंघते हुए चन्दन को हिला कर पूछा-"कोन हो जी तुम?" "मैं, राजगृह का राजवैद्य " चन्दन स्वप्न स चाक उठा था। “वैद्य | तव तनिक इस रोगी की परीक्षा तो करो"-कह कर उसने चन्दन को शिविका के सामीप ला खडा किया । चन्दन था तो चतुर । जो सैनिक-वेश देखा तो मन में डरा भी फिर उसने सोचा-"इनको मूर्ख बनाते क्या लगता है।' लगा मूच्छित व्यक्ति की नाडी देखने । सैनिको से पूछा-"विलम्ब हुआ इन्हे मूच्छित हुए न?" "ठीक है, पूर्ण विलम्बिका है। अतडिया में विद्रधि है और नाडियो मे श्लीपद ।" अकस्मात् एक अट्टहास हुआ। धनदत्त तो गिरते-गिरते बचा, परन्तु भयभीत ता सभी हो गये । धीरे-धीरे एक बलवान् ब्रह्मचारी आकर उनके सामने खडा हो गया। ब्रह्मचारी ने पूछा "वैद्यराज | नाडियो म श्लीपद ।" "देखिए उनके पैर भारी हैं। धीरे-धीरे चल रही है।" चतुर चन्दन ने कहा। "वाह, तुम्हारे जैसे वैद्य तो मगध म ही मिलेगे । देखू तो"-कह कर ब्रह्मचारी ने रोगी की परीक्षा की। उसन ठहर कर पूछा-"क्या इसके शरीर से, रक्त वहुत-सा बहा है ?' "हाँ, युद्ध में घायल हुए है ।' साथ क सैनिक न कहा । "ठीक है, तुम लाग आलोक का प्रबंध करा, मैं पास ही जड़ी लेने जाता हूँ-कहकर ब्रह्मचारी तो एक ओर चला गया। धनदत्त ने टटोल कर एक तेल से भीगी वृत्तिका निकाली। पथरी से आग झाड कर जला दी गई। ब्रह्मचारी ४६२ प्रसाद वाङ्मय