पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५०९

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दरिद्र दार्शनिक उत्पन्न होते है ? जिसे कपडा नहीं मिला उसने सोच लिया कि माता के गर्भ से क्या कपडे पहन कर आये थे। बस एक सिद्धान्त बन गया, नगे घूमने लगे। कभी धोखे से कोई मच्छर मह मे उन्ही की श्वासो से खिंचकर चला गया, यस प्राणि-हिंसा हो हो गई। मुंह पर कपड़े बांध कर चलन लगे। गड गया कांटा-ढोग बनाया कि चोटियां दवती है। फिर तो हाथ में झाड, वाले दार्थनिक ! शिर नही घुटा--जटाधारी अस्वस्थ हुए, पानी गरम करके पीने लगे। और ये सब सिद्धान्त वन गये। वाह रे मगध ।" धनदत का स्वर ऊँचा होने लगा था। उसे मणिमाला और आजीवक वाली बात स्मरण हा रही थी। सामने था आजीवक | चन्दन को झपकी आ रही थी। सेठजी बक रहे थे। भीतर क्रोध आ रहा था मणिमाला पर । धैर्य से उसने कहा-"तो फिर चलिये उसी चैत्य पर विथाम किया जाय ! चन्दन थक गया है, इसे भी लिवा ले चल-"कह कर धनदत्त ने चन्दन का हाथ पकड़ा। वह उठ खडा हुआ। तीनो चैत्य-वृक्ष के नीचे पहुँचे। पहले तो चैत्य-वन्दना की गई, फिर एक ओर वृक्ष के नीचे आसन लगाने का डौल होने लगा। धनदत्त ने पूछा--"तो आप धर्मशाला मे न जाइएगा।" "अभी तो नही जा रहा हूँ। आगे जाने नियति । लाखो योनियो मे भ्रमण कराते-कराते जैसे यहां तक ले आई है, वैसे और भी जहाँ जाना होगा..." "तो अभी जाना है आपका ! अच्छा वैठिए । कुछ अंधेरा है, तो भी पास ही जल है । मोदक जो बचा है, हम तीनो बाँट कर खा ले । रात्रि में फिर देखा जायगा।" धनदत्त की उदारता उबल उठी थी। उसे साथी चाहिए, नगर का बाहरी प्रान्त । पास मे रत्न और मणि । चन्दन भी चौंक उठा। धनदत्त न पान में जल लाने के लिए उससे कहा । उसने कहा, "मुझे नीद आ रही है, ऐसा न हो कि वहां जाकर सो जाऊं, सो मेरा मोदक दे दीजिए। खाता हुआ वहा तक जाऊंगा, अपनी अजलि से जल पी लूंगा, फिर आप लोगो के लिए जल ला सङगा । इस नीद को भगाने की दूसरी औषधि नहीं।" __घनदत्त ने वही व्यवस्था की, किसी तरह जलपान करके वे तीना उस चैत्यवृक्ष के नीचे चुपचाप बैठे । आकाश मे नक्षत्रो का उदय होने लगा। अकस्मात धनदत्त ने कहा-आजीवक | हम लोग तीनों मनुष्य बारी-बारी से सोयेगे। क्यो न ! ठीक रहा?" "नही, मैं तो नियतिवादी हूँ। जब सोना होगा, सो जाऊंगा। तब तुम जगा ही नहीं सकते, अभी तो मुझे नीद आने मे कुछ विलम्ब है।" धनदत्त ने मन मे सोचा, "अभी-अभी इसने लड्डू खाया है। विश्वासघात तो नही करेगा, इरावती:४६१