पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१२

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हाथ पकड कर वह चलता हुआ। अग्निमित्र के मुंह से सहसा निकला--"वे ही तो हैं, हाँ स्वस्तिक-दल के । इन्हे पकडो तो!" साथ के दोनो सैनिको ने उनका पीछा करने का अभिनय किया। वे चारो लम्बे हुए । उधर से उल्का का आलोक और टापा का शब्द समीप आ रहा था। चैत्य के नीचे एकत्र लोगो ने आश्चर्य से देखा कि अश्वारोही प्रहरियो-द्वारा वे चारो पकड कर वही लाये गये । किन्तु आजीवका के सिर की जटा का अधिकाश सैनिक के हाथ मे था । अग्निमित्र ने और भी आश्चर्य से देखा कि अश्वारोहियो का नेता उसका पिता सेनापति सामने खडा है। अग्निमित्र ने उठकर पिता की वन्दना की, किन्तु रोप से पुष्यमित्र न आशीर्वाद न देकर पूछा-"क्या महानायक ! यही शिविर का सैनिक वर्तव्य तुम कर रहे हो?" "आर्य 1 मैं ता आहत होकर यहां तक शिविका मे आया हूँ।" अग्निमित्र ने कहा। "आहत | क्या कही, युद्ध ?' "नही, आकस्मिक आक्रमण ।" "किन्तु तुम ऐसे स्थान पर गये ही क्यो? क्या वहाँ सैनिक-चर नही जा सकते थे।" ___ "भूल हुई " सिर नीचा कर अग्नि ने कहा । किन्तु सेनापति को सतोप न हुआ । उसने घूम कर देखा -एक भव्य आकृति वाला ब्रह्मचारी | पीछे धनदत्त और उसकी स्त्री! "श्रेष्ठि ? तुम कब आये और यह सब क्या है ?" सेनापति ने डॉट कर पूछा। धनदत्त ने कुल कथा सुना दी। तब ब्रह्मचारी ने कहा-"सेनापति । पाखण्ड छद्मवेशियो से तुम्हारी राजपुरी भर गई है। शत्रु दोनो ओर हैं, यदि तुम इन कटको का उपाय न करोगे तो विनाश मे सन्देह नही।' पुष्यमित्र सिर नीचा कर कुछ विचार कर कर रहे थे, फिर जब सामने देखा तो वह ब्रह्मचारी वहाँ नही था। पुष्यमित्र ने सैनिक को आज्ञा दी-"चार अश्वारोही धनदत्त और उसकी स्त्री को सब सम्पत्ति के साथ जाकर उसके घर पहुंचा दे। और चार इन छद्मवेशिया को बन्दीगृह मे ले जायं । चन्दन यदि जाना चाहे तो धनदत्त के साथ जा सकता है । और तुम अग्नि ? मेरे शिविर मे चलो। शेष अश्वारोही मेरे पीछे रहेगे । अग्नि, तुम एक घोड पर बैठ जाओ। बैठ सकते हो?" ४६४: प्रसाद वाङ्मय