पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१७

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"मैं सम्राट् बृहस्पतिमित्र हूं।" कालिन्दी थरथराई, कंपी, जैसे लडखडा कर घुटनो के बल बैठ गई । उसके दानों हाथ अञ्जलिबद्ध थे। आँखो मे दया की भीख ! सम्राट् कुछ हंस पडे"अरे । यह क्या ? तुम तो अभी-अभी मुझको धमका रही थी न ।" "क्षमा हो महाराज " "किन्तु तुम यहाँ आयो कैसे ?" "मैं तो वरसा से यही हूँ, वन्दिनी । सुगाग प्रासाद के एक कोने में पड़ी रहती हूँ। मुझसे अपराध हुआ। आज भूलकर इधर चली आई थी, सो भी अनजान में । एक द्वार जो सदैव बन्द रहता था, आज अकस्मात् खुला देखकर ही आ गई । उस भयभीत वाला को वही अपने प्रकोष्ठ में रख आई हूँ। उसके लिए जो आज्ञा हो।" कालिन्दी का कठ कांप रहा था। उसका अभिनय अत्यन्त स्वाभाविक था। ____ "अच्छा किया, उसको विथाम की आवश्यकता थी। उसे अपने समीप ही अभी रहने दो। किन्तु आश्चर्य है, मुझे नहीं मालूम कि तुम कौन हो? इस सौन्दर्य का कुसुमपुर के राजमन्दिर में यह कैसा अपमान " ____ "दुर्भाग्य । सम्राट् । मैंने तो कुछ अपराध नही किया था । हाँ, जिस दिन मैं यहां पकड कर लाई गई, ठीक उसी दिन सम्राट् शतधनुप की मृत्यु हुई। सभवत इसीलिए मुझे कारावास का दण्ड मिला । अन्त पुर मे और कही जाने का मुझे निषेध है।" कालिन्दी की आँखो से झडी लग रही थी। बृहस्पतिमित्र ने उस करुण सौदर्य को आँखो भर देखा । उसके भीतर से जैसे किसी ने कहा--"ओह यह अद्भुत सौन्दर्य " उसने हाथ पकडकर कालिन्दी को उठाया । हाँ-रोमाञ्च हो रहा था । और कालिन्दी भी अनुकूल अभिनय कर रही थी । सम्राट् ने कहा "डरो मत " "नही, मुझे क्षमा मिले, इस बन्दीगृह से छुटकारा मिले । मैं यह सब रलआभूषण यही रखकर चली जाऊंगी।" कालिन्दी विह्वल, चकित और भयभीत थी। "तुम जाओगी कहाँ, न, यह कभी हो नही सक्ता । अरे ! रो रही हो, क्या हुआ जो तुमने मेरी यह छोटी-सी बात जान ली। तुम मेरी सखी हो।" सम्राट अपनी दुर्बल मनोवृत्ति से कांप रहे थे। और कालिन्दी एक आंख से हंस रही थी, दूसरी से रो रही थी। उसके घरो से सिसकी निकल रही थी। किसी, नही समझा जा सकता था। उसने विस्मय से पूछा-"सच " इरावती: ४६८