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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१६

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खिल रही थी। विच्छिप्ति पूर्ण शृङ्गार कला की सप्टि कर रहा था। उसन पूछा आप कौन है ? यहाँ अन्त पुर में ऊधम मचाने स क्या फल हागा आप जानते हैं । और यह स्त्री । अरे । यह तो मूच्छित हो गई है।" कहती हुई कालिन्दी मतवालो चाल से कुजगृह की हरियाली को आन्दालित करती हुई लतागृह के भीतर निर्भयता से घुसी। बृहस्पतिमित्र फिर भी चुप । उस आश्चर्य हो रहा था कि यह कौन मुन्दरी है । कालिन्दी के एक एक अग को वह देख रहा था, परख रहा था। कालिन्दी जैसे इन बातों पर ध्यान ही नही कर रही थी। उसे तो इस समय इरावती को चैतन्य करने की धुन थी। झरने से जल लेकर उसने मुंह पर छीटे दिये । भय अधिक चाट कम होने से इरावती ने जांखें खाली इरावती ने समझा, बरे अवसर पर महारानी आ गई हैं । उसकी रक्षा के लिए! इरावती बैठ गयी थी। उसने सिर झुकाकर कहा- 'रानी मेरी रक्षा करो।" कालिन्दी सम्राट् की आर देखकर मुस्कुरा उठी। वह सचमुच अन्त पुर को अधीश्वरी का अभिनय करना चाहती थी। इरावती का हाथ पकडकर उसने उठाया और सम्राट् पर व्यग की मुसकान छोडती हुई वह बाहर हो गई । इरावती भी साथ मे चली गई । विमूढ-से सम्राट् वही बैठे रहे । पालतू पक्षियो की कोमल काकली से बीच बीच मे निस्तब्धता भग हो जाती थी । परन्तु सम्राट जैसे एक सपना देख रहे थे । इरावती | और यह कौन । दानो सुन्दर चित्र । एक के बाद दूसरे की वारी रहती, एक के हटते ही दूसरा उपस्थित हो जाता। फिर नूपुरो की झनकार ने सम्राट् को चौका दिया । अब तो कालिन्दी फिर सामने थी। इस बार उसकी आँखो मे वह चचलता न थी। भोलापन का वह अभिनय था। उसने सम्राट् की ओर देखकर कहा--"आश्चर्य । क्या तुम अभी यही अकड हो । मैंने तो समझा था कि तुम चले गय हागे । कौन हो जी तुम" ___"मैं हूँ कोई। पर तुम तो बतानो यहाँ कैसे आ गई हा ? अन्त पुर में ता मैंने कभी तुमको देखा नही ।" सम्राट् जैसे पहचानने का प्रयल कर रहे थे। "अच्छा तो, इस अवरोध मे रसिकता की क्रीडा करने के लिए, जान पड़ता है तुम्हारा अनपूछा अधिकार है । तब तो मैं जाती हूँ। मुझका क्या, जो यहाँ का प्रहरी हो स्वय देखे । क्षमा कीजिए।" वह नाट्य करती हुई लौटने लगा थी। सहसा सम्राट उठ खड हुए । उन्होने अज्ञा भरे स्वर मे कहा--"ठहरो।' कालिन्दी जैसे भयभीत-सी रुक गई। भोली हरिनी-सी उसकी वडी-बही आँखे प्रश्न करने लगी-"मुझे छुटकारा कब मिलेगा?" ४६८ · प्रसार वाङ्मय