पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१९

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"देव । आपकी यह दूसरो भूल है। वह राजगृह से जिन-मूर्ति लेकर चला जायगा । उसे क्या-रहे मगध या जाय । "तो तुमको यह सव भी मालूम है । आश्चय से बृहस्पतिमिन ने पूछा। "हां, यह ध्रुवसत्य है । मेरी प्रार्थना है कि आप कुछ सोच-समझकर उपाय करे " कालिन्दी ने अन्वेषण करने वाली दृष्टि सम्राट् पर डाली और वह कामुक व्यक्ति कालिन्दी का और भी अन्धभक्त बन गया था। उसने कहा "कालिन्दी । तुम उसके कुसुमपुर आन का कोई उपाय नही कर सकती हो।" "इरावती को आप वहाँ तक जाने की आज्ञा देगे। -कहकर कालिन्दी ने गभीरता धारण कर ली। ___ "इरावती तुम्हारे अधिकार म है। सखी । जो चाहा-जो उचित समझो।" विवश-से सम्राट् ने कहा। "मैं भी जाऊंगी।" "तुम भी।' "हाँ " "जैसा उचित समझो' ---कहकर सम्राट ने दीर्घ निश्वास लिया । अकस्मात् बडे गभीर स्वर में घण्टा बजने लगा। यह सूचना थी सम्राट् को मन्त्रणा-गृह मे आने की। अशोक के समय से ही यह नियम था । सम्राट् ने उसी शब्द की ओर पैर बढाया। इरावती:५०१