________________
श्वत प्रस्तर के एक छाट-स कुण्ड व समाप-जिसमे उसी प्रस्तर सपना हुई वमलासना प्रतिमा, अपन हाथा के दाना लीला कमल स जलधारा उछाल रही है.-उदास मन स मणिमाला वैठी है। मणिमाला युवती है, रूपवता है, विन्तु वह अत्यन्त सरल भीरु प्राति की स्लो है। आन वाली आपतिया के अतिरजित वर्णन स, पराकर जब वह छावशा आजीवक के साथ रक्षा की जागा से नगर के बाहर चली गई थी, तब धनदत्त का कुमुमपुर स गय दा बरस हो चुके थे। जनथुतिया से मणिमाला ऊब गई थो । रोई कहता 'वह कही मारा गया, कोई कहता ‘अब लोटकर आन का नही , कोई भुछ कहता । उसके धैर्य का बांध टूट गया । मानसिक उत्तेजना से विवश होकर वह चली गई। किन्तु अदृष्ट ! उसी दिन धनदत्त अकस्मात् नगर के बाहर ही मिला और मणिमाला लौटकर अपने विशाल भवन म आ गई। आई ता, परन्तु वह अपराधी की तरह। उसकी आँख धनदत्त के सामने नही होती थी। मणिमाला को कोई सतान नहो । वह सचमुच अभा चपन का वालिका-सा समझती थी। और धनदत्त प्रौढ़ वयस का व्यापार-कुशल व्यवसायो था । उसका व्यवसाय था ऋण देना और रत्ना का व्यापार । मुक्ता और वैदूर्य का तो वह एकछत्र अधिकारी था । उसके स्वर्ण-भाण्डारा का पता न था कि वे कितन और कहाँ हैं ? यह धनदत का दूसरा परिणय था । वह भी जैसे लोक-प्रथा का पालन मात्र । उसकी प्रधान प्रणयिनी थी लक्ष्मी । आते ही धनदत्त ने अपनी पहला व्यवस्था फिर से बना ली । परन्तु पति और पत्नी में तो अनबन ही रही। पुष्यमित्र की आज्ञा न होती तो वह मणिमाला को साथ ले आता, इसम सन्देह है। वह समझ गया कि चतुर सेनापति का इस समय पाटलिपुत्र का धन-भाण्डार कही जान दना नही चाहते । कभी-कभी धनदत्त सोचता कि मणिमाला निरपराध है । वह एक ऐस हो विचार का अवसर था, जब धनदत्त दहलता हुआ धीरे-धीरे मणिमाला के समीप आ रहा था। पीछे-पीछे था चन्दन । चन्दन' कह रहा था-"वह कुक्कुरात वाला दार्शनिक तो हटता ही नही। उसी तरह गेडुरी मारे दाना केहुनियो के वल कुत्ते की तरह पड़ा है।" "पडा रहने दो।' अन्यमनस्क भाव से धनदत्त ने कहा । ५०२. प्रसाद वाङ्मय