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में यह नही मानता कि स्त्रियां सब सान म उनी प्रतिमा की तरह अविचल रह। और आप | " "मैं क्या-में " "आन्ध्र राजधानी री राजगणिका को उस दिन कितनी चाटुकारी कर रह थे । भूल गये ! " "दूर पागल । भला इतन महंग मूल्य पर वह एपावली विकती।" चन्दन का धूरते हुए धनदत्त ने कहा । मणिमाला के अधरो म एक रेया दियाई पड़ी। उसने घूमकर देखा, धनदत्त से उसको आप मिली। ___ "और मरे प्राणा का कोई मूल्य न या।" अभी यह इतना ही कह पाई थी। धनदत्त भी उत्सुक था कुछ उत्तर देन के लिए, सहसा रसाइये न आफर कहा"आर्ये । मछलीवाला आज मछली नही द गया।" धनदत्त बाल उठा--"न होगी मछली ! बस इसी बात के लिए इतना " "लुब्धय और वधिक भी मांस लेकर नहीं आय। सब कहते हैं कि कुक्कुटाराम के महास्थविर ने पापणा की है कि राष्ट्र के कल्याण क लिए, जब तक युद्ध और आक्रमण समाप्त न हो जाय, भगवान बुद्ध की अहिंसा को अभ्यर्थना करनी चाहिए । पाटलिपुत्र म काई जीवहिंसा न हो।' मूपकार ने एक सांस म कह डाला। ____ "और शुद्ध म भिधुआ की, आजीवका को, पाद-वन्दना होगी न ? चन्दन ! जा, तू पहले उस बुक्कुरवत वाले को मेरे द्वार से भगा। में इन पाखण्डा को एक क्षण भी नहीं देखना चाहता।" क्रोध से धनदत ने कहा । "देखती हा मणिमाला ! यह सब क्या हो रहा है? कुछ समझ म नहीं आता।" जैसे समझौता हो रहा था। मणिमाला भी घूम कर खडी हो गई। उसी समय बाहर से शृगनाद और 'आनन्द' का शब्द सुनाई पड़ा। "मैं तो अहिंसावादी हूँ । कुक्कुरखती हा या विडालनती हो, किसी को कष्ट दना हिंसा है स्वामी !"--कहकर चन्दन चला। __"अरे इस तो देख ! कौन सी करने आ गया । जब सब दुखी है, तब यह आनन्द मानने वाले कहाँ स या पहुंचा।" धनदत्त ने झुंझला कर कहा । रसोइया और चन्दन दोनो उसी ओर दोहे । एकान्त देखकर मणिमाला स धनदत न कहा-"सुनती हो कुछ !' "मुनती भी हूँ, देखती भी हूँ।' "क्या देखती हा, देखतो ता आज खाने-पीने की एसी अव्यवस्था होती?" ५०४ . प्रसाद वाङ्मय