पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५२६

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"मैं मुनि का दर्शन करने अवश्य जाऊंगी। हाँ, अतिथियों के आने के पहले ही आ जाऊंगी।' उन सुन्दरिया को देखकर मणिमाला को जैस अपनी स्वतत्रता की घोषणा करनी चाहिए ही। "रानी । आप मुझको आज्ञा दीजिए कि मैं चली जाऊं । आपका नहीं मालूम कि दरिद्रा का मत्य भी अपराध है । मैं रिक्त हूँ न | इसलिए मैं बाहर से आये हुए सम्मान और अपमान दोनो को ग्रहण कर लेती हूँ। किसी का भी तिरस्कार करने की क्षमता मुझम नहीं।" इरावती ने कहा। किन्तु अब साथ वाली रानी भी अपनी गभीरता स्थिर न रख सकी । उसन अपना अवगुण्ठन गिरा दिया और घरखर मणिमाला की ओर देखा । फिर बोली "मेरी सखी का अपमान करन वाल को मैं कभी क्षमा नहीं कर सकती।" उसकी वह तेजस्विनी मूर्ति देखते ही धनदत्त न मणिमाला की ओर दीनता से सकेत किया, चुप रहने के लिए। और कहा-"क्षमा कीजिए हाँ यह तो कहिए कि इनमे स कौन-कौन थापने चुनी।" ____ "लती तो मैं और भी परन्तु मुझे राजगृह जान की शीघ्रता है । क्याकि यहा निग्रन्था का भारी जमाव है । और अजिम की प्रतिमा की यात्रा का भी दर्शन करना है । मैं समझती हूँ कि अभी एक प्रहर दिन होगा । इतने समय मे तो मेरे पुष्परथ को वहाँ पहुँच जाना चाहिए।" __"मणिमाला जैसे ढीली पड़ चुकी थी। उसने कहा--"अच्छा आप राजगृह जा रही है । चलती मैं भी परन्तु । धनदत्त स अब नहीं रहा गया। उसने कहा-"तुम तो सब तीर्थंकरो का, महात्माओ को अपना दर्शन देने का निश्चय कर चुकी हा, यह मैं जानता हूँ। किन्तु इस पर ध्यान न देकर मणि ने कहा-"बहन । यदि आप मरा अपराध क्षमा कर दे, तो मैं एक बात कहूँ।" "कहिए । इरावती मेरी प्रिय सखी है । मैं उसकी मान-रक्षा अवश्य करूंगी। किन्तु जब आप सरल चित्त स क्षमा मांग रही है, तब मेरी इरावती अवश्य तुमसे सौहार्द्र स्थापन कर लेगी।" "मैं चाहती हूँ, आज आप लोग भी मेरे निमत्रण का स्वीकार करे । कल सवरे हम लोग भी आप के साथ राजगृह चले, बडा यानन्द रहेगा। क्या? ता भोजन करने में क्या आपत्ति है ?" "फिर मैं भी इस भिक्षा को भिक्षुक को क्यो न दे दूं? मुझे सग्रह करके रखने की आज्ञा नही है । किसी दासी से कह दीजिए यह ले जाय, कुक्कुरब्रती को दे आव"-ब्रह्मचारी ने कहा और भिक्षा की झोली वही रख दी।