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क्योकि वीणा और मृदग फिर से मिलाये जा रहे थे । धनदत्त ने खीझ-भरे स्वर मे ब्रह्मचारी से कहा--"आपको भी सगीत से प्रेम है ?" ___क्यो न हो, सगीत मेरी तन्मयता मे आनन्द की माना बढान म समर्थ है । तुम लोगो के कल्पित दुख और विवेक की अतिरजना के आवरण को वह सहज ही हटा देता है।" "तो क्या आप समझते है कि यह विवेक की भावना निन्दनीय है ?" धनदत्त ने पूछा । युवक ध्यान से इनके विवाद को सुन रहा था ? ___"इस भेदपूर्ण विवेक की सीमा खोजते हुए, जब हम आगे बढते है, तब सत्य का वही स्वरूप सामने आता है, जिसमे हम पुद्गल मान बन जाते है और सदैव किसी उच्च, अप्राप्य, सत्य को पाने के लिए तरसते रहते है।" युवक ने वीणा को मिलाने का काम धीमा कर दिया था। वह भी इस विवाद मे रस ले रहा था ! धनदत को अपनी वणिक्-बुद्धि के अतिरिक्त नागरिक संस्कृति भी प्रदर्शित करने की प्रेरणा जग पडी थी। उसने कहा "क्या उच्च सत्य को पाने के लिए, हमे क्षुद्र विचार की नालियो का अतिक्रमण नही करना चाहिए ?" "अतिक्रमण करके आपका विवेक ससार से आपको अलग, अपनी और भी सकुचित भूमिका मे खडा कर देगा । जहाँ केवल विराग हो नहो, अपितु आसपास के फैले हुए ससार से घृणा भी नाक सिकोडने लगेगी। उस विवेक को भी हम क्या कहे, जो हमको ससार से विच्छिन्न करके, वैराग्य और अपनी पवित्रता के अभिमान मे, हमे अद्भुत परिस्थिति मे डाल दे । हमारा विश्व से सामञ्जस्य होना असम्भव कर दे । शकाआसे, निषेधो से हमें जकडकर काल्पनिक उच्च आदर्शों के लिए वामन की तरह उचकते रहने की हास्यजनक स्थिति में सदैव डाल रक्खे ।" युवक ने तारो म एक बार झनकार देकर निश्चित भाव से पूछा-"तो क्या अभी इस वेश मे आप हम लोगो से अपने को विभिन्न नहीं प्रमाणित करते ? क्या यह वैराग्य का स्वरूप नही ? हमारे विवेक को रूप तो ग्रहण करना ही पडता है । वह चाहे नैष्ठिक ब्रह्मचारी का हो चाहे श्रमण का ।" "और इस सगीत-सभा मे मेरी उपस्थिति को आप क्या कहगे ?" अग्निमित्र जैसे हंस पडा । उसने कहा-'ब्रह्मचारिन् ! मैं तुम्हारी वात समझ रहा हूँ। तुम प्रत्येक परिस्थिति से तादात्म्य कर लेना चाहते हो न?" ___ "हाँ, मेरो विचार-धारा पंगु नही, उन्मुक्त नील आकाश को तरह विस्तृत, सव को अवकाश देने के लिए प्रस्तुत । चारो ओर आनन्द की सीमा में प्रसन्न । और वह प्रसन्नता प्रत्येक अवस्था मे रहने वाले प्राणियो के विरुद्ध न होगी। ५१६ : प्रसाद बास्मय