पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५३७

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चारो ओर उजला-उजला प्रकाश जैसा ; जिसमे त्याग और अपनी स्वतत्र सत्ता अलग बनाकर लडते नही । विश्व का उज्ज्वल पक्ष अधकार की भूमिका पर नृत्य करता-सा दीख पड़े, सवको आलिगित करके आत्मा का आनन्द, स्वस्थ, शुद्ध और स्ववश रहे। यह स्थिति क्या अच्छी नही ?" युवक ने उल्लसित नेयो से उस ब्रह्मचारी की ओर देखकर पूछा"तो क्या तुम अपनी इस अवस्था में परिवर्तन भी चाहोगे ?" "चाहूंगा नही, अभीप्ट जैसा भो कुछ हो । ऐसा नही; किन्तु परिवर्तन हो तो बुरा क्या है । होगा अच्छा हो । गुरुदेव ने बतलाया है-कही अशिव नहीं। सर्वत्र शिव । सर्वन आनन्द ! फिर क्यो भय ।" स्त्रियां इस सवाद से उद्धार पाना चाहती थी। मणिमाला ने कहा-"तो । फिर आनन्द के लिए संगीत की याजना मे आप वाधा क्या डाल रहे हैं। सुनिए कुछ।" ___ "ओहा, यह तो मरा उद्देश्य नही । हां, चलने दीजिए । इन वाता को अधिक समझना हो तो महावट के नीचे गुरुदेव का दर्शन कीजिए।" ब्रह्मचारी ने निलिप्त भाव से कहा। युवक ने वीणा उठा ली। अद्भुत स्वरा का नृत्य आरम्भ हुआ । उल्काधारिणी स्त्रियां पुतलियो की तरह खडी थी। वाहर की वर्षा का शब्द और बादलो की गडगडाहट के लिए यहाँ स्थान नहीं रह गया था । वह कलिंग का युवक वीणा को द्रुत, मध्य और विलम्बित गतियो मे इस तरह चढा-उतार रहा था कि सुनने वाले आश्चर्य और स्वर-संचार से मुग्ध हो रहे थे। किन्तु चचल मणिमाला, वह चूकने वाली नही, उसने धीरे से इरावती के पैरो मे नूपुर पहना ही दिया। अभी विलम्बित से मध्य लय म वीणा वढ रही थी । सहसा इरावतो उठ खडी हुई । हाँ, जैसे अपने को भूली हुई । उसके पैरो मे एक अद्भुत प्रेरणा उत्पन्न हो गई थी। वह नृत्य करने लगी। अग्निमित्र एक वार जैसे कही से लगे हए धक्के को सम्भाल कर बैठा रह गया । इरावती के मदमाते नेत्र अधखले तो थे; किन्तु वे किसी को देख रहे थे कि नही, कहा नहीं जा सकता था। कालिन्दी बाण चलाकर व्याध की तरह अपने दोना लक्ष्यो को देख कर किन्त वह कलिंग का युवक | उसने तो जैसे ऐसा नृत्य कभी देखा ही न हो। इतना वह भीतर-बाहर से प्रभावित हो रहा था कि उसकी उँगलियाँ उस समय मदिरालस हो गयी, जब कि उसे तत्काल ही द्रुतगति आरम्भ कर देनी चाहिश थी। वह नेत्रो से इरावनी के कलापूणे अवयवों को देखता हआ मध्य लय में संगलियो को बहलाने लगा। इरावती के अग-अग से रस की सृष्टि हो रही थी। इरावती : ५१७