पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५३९

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"धनदत्त ने खीझ कर कहा-"विश्राम !" "हाँ, यदि तुम्हारे यहां इसका स्यान न हो तो मैं कही भी जाकर विश्राम कर लूंगा।" वह सचमुच चला। अग्निमित्र और कालिन्दी की आंखें क्षण भर के लिए मिली । उत्तर म कालिन्दी ने कहा-“ब्रह्मचारीजी ; यदि आप कही भी जा सकते हैं, तो यह मुद्रा लीजिए और महाराज के समीप उपस्थित होकर कहिए कि-"कलिंगाधिपति आपको राजधानी मे विपन्न हैं।" ब्रह्मचारी ने मुद्रा ले लो । गम्भीर हाकर कहा-"तो मैं अब यहाँ लौटूंगा नही, तुम्हारा काम करता हुआ चला जाऊंगा।" ___"महाराज जैसी अनुमति दे।" कालिन्दी ने कहा । अग्निमित्र ने ब्रह्मचारी के चले जाने पर खारवेल मे कहा--"यह पाटलिपुत्र के साहसिको की क्षुद्र मडली होगी ! केयूरक ! उन लोगो के पास स्वस्तिक का चिह्न भी तुमने देखा "हां, लाल स्वस्तिक ।" "वे अधिक-से-अधिक एक सौ होंगे। कोई चिन्ता नही । सेठ लूटा नही जा सकता। हम लोग अपने मनुष्यो को एकत्र करके व्यूह-रचना कर लेते है"कह कर अग्निमित्र वाहर चला आया ! उसने देखा ब्रह्मचारी 'आन्नद !' की रट लगाता हुआ निर्भयता से बाहर की. ओर उस काली रात्रि में चला जा रहा है । उसे न तो प्रकृति की भीषणता रोक सकती है, और न मनुष्यो का भय ! धनदत्त भी घबराया सा अग्निमित्र के साथ आ गया था। अग्नि ने पूछा"तुम्हारे पास कुछ रक्षक, प्रहरी इत्यादि हैं भो ?" "है क्यो नही, बीस से कम न होगे।" "तो उन्हे इस द्वारशाला मे बुला लो।" धनदत ने पास ही लगे हुए घटे पर चोट लगाई । जितने अनुचर थे दोडकर वही आ गये । अग्निमित्र ने उन्हे देखकर कहा-ऐसा जान पड़ता है कि हम लोग आततायियों से घिर गये हैं।" "हाँ, स्वामी ! बाहर वहुत-से मनुष्य काले वस्त्रो मे अपने को ढंक कर घूम रहे हैं, वे सशस्त्र है।" एक ने कहा । "तुम्हारा तोरणद्वार बन्द होगा। सम्भवतः उसकी खिडकी खुली होगी।" "हाँ स्वामी ! अभी केवल ब्रह्मचारी गये हैं।" "आज तुम लोगो को परीक्षा का दिन है। आधे लोग द्वार पर रहे और आधे यहाँ । जब तक राजकीय सेना न आ जाय, द्वार-रक्षा होनी चाहिए । मैं