पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/७

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चेतनता से, मानसिक शोल और शिष्टाचारो से मनोभावो से मौलिक सम्बन्ध है।"संस्कृति सौन्दर्य बोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है । इसलिए साहित्य के विवेचन म भारतीय संस्कृति और तदनुकूल सौंदर्यानुभूति की खोज अप्रासगिक नही, किन्तु आवश्यक है।" सौंदर्य वोध के इसी मूल्याकन क्रम में प्रसाद जी पाश्चात्य और भारतीय सौदर्य दृष्टि का मूल्याङ्कन करते हुए हेगेल के आधार पर बने मूर्तता और अमूर्तता के सिद्धात को नकारते हुए यह स्थापना करते हैं कि "भारतीय विचारधारा ज्ञानात्मक होने के कारण मूर्त और अमूर्त का भेद हटात हुए बाह्य और आभ्यतर का एकीकरण करन का प्रयल करती है।' १६२५ के बाद जयशकर प्रसाद के साहित्य म यह सस्कृति बोध अत्यन्त प्रबलता से पाया जाता है । कामायनी, ककान और इरावती मे वाह्य और आभ्यतर के एकता की यहा समस्या है । वे इस सदर्भ मे अद्वयता के सिद्धात का प्रतिपादन करते हैं और यह अद्वयता एक प्रकार की घुलनशीलता है जो बुद्धि का अनुभूति म घुलाने से ही आ सकती है। अपना कचुक या आवरण छाहकर एक दूसरे मे लय होने का सिद्धात कामायनो मे हो नही अजातशत्रु, स्कदगुप्त, चन्द्रगुप्त, एक चूंट और ध्र वस्वामिनी में पाया जाता है । यह सतुलन व्यष्टि और समष्टि के घुलान या समझोता कराने का समीकरण भी है। ईश्वर के प्रति निष्काम भावना और विश्वास प्रसाद में अतिम समय तक बना रहा । आनन्द और नियतिवादिता का यह घना रिश्ता ईश्वर के माध्यम से ही बनता है । शैवमतावलम्बी जयशकर प्रसाद को सभी कृतियो मे प्राय एक 'अदृश्य शक्ति के सचालनत्त्व' का तर्क दिखाई पड़ता है, जो घार से घोर नास्तिक को अतत आस्तिक बना देता है । ककाल का विजय इसका प्रमुख उदाहरण है । यह एक विचित्र अन्तविरोध है जो उनकी कृतियो मे पाया जाता है । ककाल, तितली और इरावती नियतिवादी उपन्यास है । शैला का यह कथन है कि "नियति दुस्तर समुद्र पार करातो है, चिरकाल के अतीत को वर्तमान से क्षण भर म जाड देती है और अपरिचित मानवता सिंधु मे से उसी एक से परिचय करा देती है। जिससे जीवन की अग्रगामिनी धारा अपना पथ निर्दिष्ट करती है" (तितली, पृ० ५४) नियतिवादी तर्क है । यह तर्क उपन्यास में कही भी अकर्मण्यता का भाव नही पैदा करता है बल्कि मानवता के कल्याण के लिए निरतर सेवा और त्याग को एक मूल्य मानकर स्थापित करता है। प्रसाद की प्रमुख चिंता 'दिव्य आर्य सस्कृति की स्थापना है' यह सस्कृति व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास को मान कर पलती है और 'विधि निषेध' के बधनो से मुक्त रहती है । आर्य समाज से प्रभावित होते हुए भी प्रसाद का यह दृष्टिकोण आर्य समाज की शष्कता से रहित है