पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/७८

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मंगल के कमरे का जंगला गुला था। चमकीली धूप उसमे प्रकाश फैलाये थी । वह अभी तक चद्दर लपेट पड़ा था। नौकर ने कहा-वावूजी, आज भी कुछ भोजन न कीजिएगा ? | विना मुंह खोले मगल ने कहा-नहीं। भीतर प्रवेश करते हुए विजय ने पूछा----क्यो? क्या आज भी नही?--आज तीसरा दिन है ! नौकर ने कहा- देखिये बाबूजी, नीन दिन हो गये--कोई दवा भी नही करते, न कुछ खाते ही है। विजय ने चद्दर के भीतर हाथ डालकर बदन टटोलते हुए कहा-ज्वर तो नही है। नोकर चला गया। मगल ने मुंह खोला, उसका विवर्ण मुन अभाव और दुर्वलता का क्रीडा-स्थल बना था। विजय उसे देयकर स्तब्ध रह गया । सहसा उसने मगल का हाथ पकड़कर घबराते हुए स्वर में पूछा-क्या सचमुच कोई बीमारी है ? ___ मगलदेव ने बडे कष्ट मे आँखो में ऑमू रोककर कहा--बिना बीमारी के भी कोई यो ही पड़ा रहता है ? विजय को विश्वास न हुआ। उसने कहा--मेरे सिर की सौगन्द, कोई बीमारी नही है । तुम उठो, आज मैं तुम्हे निमश्रण देने आया है, मेरे यहां चलना होगा। मगल ने उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए कहा--आज तो मैं तुम्हारे यहाँ ही पथ्य लेने वाला था । यहाँ के लोग पथ्य बनाना नही जानते । तीन दिन के बाद इनके हाथ का भोजन--विल्कुल असगत है। मगल उठ बैठा। विजय ने नीकर को पुकारा और कहा-वाबू के लिए जल्दी चाय ले आओ। -नौकर चाय लेने गया। विजय ने जल लाकर मुंह धुलाया । चाय पीकर, मगल चारपाई छोडकर खड़ा हो गया। तीन दिन के उपवास के बाद उसे चक्कर आ गया और वह बैठ गया। विजय उसका बिस्तर लपेटने लगा। मगल ने कहा-क्या करते हो ! ---विजय ने बिस्तर बांधते हुए कहा--अभी कई दिन तुम्हे लोटना न होगा; इसलिए सामान बांध कर ठिकाने मे रख दूं। ___ मगल चुप बैठा रहा । विजय ने एक कुचला हुआ सोने का टुकडा उठा लिया और उसे मगलदेव को दिखाकर कहा-यह क्या | -फिर साथ ही लिपटा हुआ एक भोजपत्र भी उसके हाथ लगा। दोनो को देखकर मगल ने कहा- यह ४८ : प्रसाद वाङ्मय