पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/९३

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स्नान करके लौट आईं, अब यमुना अपनी धोती लेकर बजरे से उतरी और वालू की एक ऊँची टेकरी के कोन मे चली गई। यह कोना एकान्त था । यमुना गगा के जल म पैर डालकर कुछ देर तक चुपचाप बैठी हुई विस्तृत जल धारा के ऊपर सूय को उज्ज्वल किरणा का प्रतिविम्ब देखन लगी । जैसे रात के तारा की फूल अजली जाह्नवी के शीतल वृक्ष पर किसी ने बिखेर दी हो। पीछे निर्जन बालू का द्वीप और सामने दूर पर नगर की सौध श्रणी यमुना की आँखा म निश्चेष्ट कुतूहल का कारण बन गई । कुछ दर में यमुना ने स्नान किया । ज्यो ही वह सूखी धोती पहनकर गीले वाला को समेट रही थी मगलदेव सामने आकर खड़ा हो गया । समान भाव से दोना पर आकस्मिव आन वाली विपद को दखकर दो परस्पर शत्रुआ के समान मगलदेव और यमुना एक क्षण के लिए स्तब्ध थे। तारा । तुम्ही हो | |-बडे साहस से मगल ने कहा । युवती को ऑखो मे विजली दौड गई । वह तीखी दृष्टि से मगलदेव का दखती हुई बोली- क्या मुझे अपनी विपत्ति के दिन भी किसी तरह न काटने दागे । तारा मर गई मैं उसकी प्रेतात्मा यमुना है। मगलदेव ने आख नोची कर ली। यमुना अपनी गीली धोती लेकर चलन का उद्यत हुई । मगल ने हाथ जोडकर कहा-तारा, मुझे क्षमा करो। ___उसने दृढ स्वर में कहा- हम दोनों का इसी म वल्याण हे कि एक-दूसरे को न पहचानें और न एक-दूसरे को राह म अडे । तुम विद्यालय के छात्र हो और मैं दासी यमुना--दोनों को किसी दूसरे का अवलम्व है। पापी प्राण की रक्षा के लिए मैं प्रार्थना करती हूँ, क्याकि इसे देकर मैं न द सकी। तुम्हारी यही इच्छा है तो यही सही-कहकर ज्यो ही भगलदव ने मुह फिराया, विजय ने टेकरी की आड स निकलकर पुकारा-मगत ! क्या अभी जलपान न करोगे? यमुना और मगन ने देखा कि विजय की आख क्षण भर में लाल हो गई परन्तु तीनो चुपचाप बजरे की ओर लौटे । किशोरी ने खिडकी से झाककर कहा ---आआ जलपान कर लो, बडा विलम्ब हुआ। ___ विजय कुछ न बोला जाकर चुपचाप बैठ गया । यमुना ने जलपान नाकर दोनो को दिया। मगल और विजय लडको के समान चुपचाप मन लगाकर खाने लगे। आज यमुना का घूघट कम था। किशारी ने देखा, कुछ बढब बात है । उसने कहा--आज न चलकर किसी दूसरे दिन रामनगर चला जाय तो क्या क्काल ६३