पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/९६

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विजय को यद हुआ, पर दुख नही । वह बडी द्विविधा में पड़ा था। मगल जैसे उसकी प्रगति म वाधा स्वरूप हो गया था। स्कूल के लडका का जैसी लम्बी छुट्टी की प्रसन्नता मिलती है ठीक उसी तरह विजय के हृदय म प्रफुल्लता भरन लगी। बड़े उत्साह से वह भी अपनी तैयारी म लगा। फेमक्रीम, पामह, दूध पाउडर, वश आकर उसके वेग म जुटन लगे। तोनिया और मुगन्धा की भरमार मे वेग ठसाठस भर गया। किशोरी भी अपन सामान म लगी थी। यमुना कभी उमके और कभी विजय क साधना म सहायता करती । वह घुटना के बन बैठकर विजय की सामग्री वड मनोयोग से हैडवेग म सजा रही थी। विजय कहता-नही यमुना तौलिया तो इस बेग म अवश्य रहनी चाहिए-यमुना कहती-इतनी सामग्री इम छाटे पात्र में समा नही सक्ती । वह ट्रक म रख दी जायगी। विजय ने कहा-मैं अपन अत्यन्त आवश्यक पदार्थ अपन ममीप रखना चाहता हूँ। आप अपनी आवश्यकताओ का ठीक अनुमान नही कर सकते । सभवत आपका चिट्ठा वढा हुआ रहता है। नही यमुना । वह मेरी नितान्त आवश्यकता है। अच्छा तो सब वस्तु आप मुझस माग लीजिएगा दखिए जब कुछ भी घटे । विजय ने विचार कर दखा कि यमुना भी ता मरी सबस बढकर नावश्यकता की वस्तु है । वह हताश होकर सामान से हट गया। यमुना और किशोरी ने ही मिलकर सब सामान ठीक कर लिय। ___निश्चित दिन आ गया। रेल का प्रवध पहले ही ठीक कर लिया गया था। किशोरी की कुछ सहेलियाँ भी जुट गई थी। निरजन थे प्रधान मनापति । वह छोटी-सी सेना पहाडी पर चढाइ करन चली। चैत का एक सुन्दर प्रभात था। दिन आलम से भरा अवसाद से पूर्ण फिर भी मनोरजकता थी प्रवृत्ति थी। पलास क वृक्ष लाल हो रहे थे। नइ-नई पत्तियो के आने पर भी जगली वृक्षो म घनापन न था। बौखलाया हुआ सब से धक्कम धुक्की कर रहा था। पहाडी के नीचे एक झील सी थी जो बरसात म भर जाती है। आज कल खती हो रही थी। पत्थर के ढोको स उनकी सीमा बनी हुई थी वही एक नाल का भी अन्त होता था। यमुना एक ढोके पर बैठ गई । पाम ही हेडबग धरा था। वह पिछडी हुई औरतो के आने की बाट जाह रही थी और विजय शेतपथ स ऊपर सवके आगे चढ रहा था। ६६ प्रसाद वाङमय