पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/९७

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किशोरी और उसकी सहेलियां भी आ गई । एक सुन्दर झुरमुट था, जिसम सौंदर्य और सुरुचि का समन्वय था। शहनाई के विना किशोरी का कोई उत्साह पूरा न होता था, बाजे-गाजे से पूजा करने की मनौती थी। वे वाजे वाले भी ऊपर पहुंच चुके थे। अव प्रधान आक्रमणकारियों का दल पहाडी पर चढन लगा। थोड़ी ही देर में पहाडी पर सध्या के रग-बिरगे वादलो का दृश्य दिखाई दने लगा । देवी का छोटा-सा मन्दिर है, वही सब एकत्र हुए। वपूरी, बादामी, फीरोजी, धानी, गुलेनार रग के चूंघट उलट दिय गये । यहाँ परदे की आव श्यकता न थी। भैरवी के स्वर, मुक्त होकर पहाडी से झरनो की तरह निकल रहे थे । सचमुच वसत खिल पड़ा । पूजा के साथ ही स्वतंत्र रूप से ये मुन्दरियाँ भी गाने लगी । यमुना चुपचाप कुरैये की डाली के नीचे बैठी थी। वेग का सहारा लिये वह धूप से अपना मुख वचाये थी । किशोरी ने उस हठ करक गुलनार चादर ओढा दी । पसीने से लगकर उस रग ने यमुना के मुख पर अपने चिह्न बना दिय थे । वह बडी मुन्दर रगसाजी थी । यद्यपि उसके भाव आखो के नीचे की कालिमा मे करुण रग म छिप रहे थे, परन्तु इस समय विलक्षण आकषण उसके मुख पर था । सुन्दरता की होड लग जाने पर मानसिक गति दवाई न जा सकती थी। विजय जब सौदय स अपने को अलग न रख सका, वह पूजा छोडकर उमी के समीप एक विशालखण्ड पर जा बैठा । यमुना भी सम्भलकर बैठ गई थी। क्यो यमुना । तुमको गाना नही आता? ---वात-चीत आरम्भ करने के ढग म विजय ने कहा। आता क्यो नही, पर गाना नहीं चाहती हूँ। क्यो? या हो । कुछ करने का मन नहीं करता । कुछ भी। कुछ नहीं, ससार कुछ करने के याग्य नहीं । फिर क्या ? - इममे यदि दर्शक बनकर जी सके, तो मनुष्य के बडे सौभाग्य की बात है। परन्तु मैं केवल इसे दूर से नहीं देखना चाहता। अपनी अपनी इच्छा । आप अभिनय करना चाहते है, तो कीजिए, पर यह स्मरण रखिए कि सब अभिनय सबके मनोनुकूल नहीं होते। यमुना लाज तो तुमने रंगीन साडी पहनी है-वडी सुन्दर लगती है ! क्या करूं विजय बाबू | जो मिलेगा वही न पहनूगी। --विरक्त होकर यमुना ने कहा। ककाल ६७