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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१०

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थी। उसका सैन्य बल और अर्थ बल पुष्कल रहा। कुमार गुप्त के अन्तिम काल में वे सिर उठाने लगे थे इनके दमनार्थ स्कन्दगुप्त गए या भेजे गए थे। अनुभव सिक्त सेनानी पुष्यमित्र और उनके पुत्र चक्रपालित साथ रहे। उभय व्यक्ति ऐतिहासिक हैं जिनका उल्लेख सुदर्शन तटाक-ग्रन्थ में है जो जूनागढ़ प्रस्तर-अभिलेख में टंकित है।

इस प्रकार पाँचवें ऐतिहासिक नाटक की ऐतिहासिकता समृद्ध है। उसमें कवि कालिदास के सम्बन्ध में भी एक शोधपूर्ण उपपत्ति है (अवलोक्य स्कन्दगुप्त परिचय––प्रसाद वाङ्मय पंचम खण्ड) स्कन्दगुप्त में मातृगुप्त की आराध्या-प्रणायिनी को मालिनी कहा गया है। शारदादेश (कश्मीर––सतीसर) के म्लेच्छाक्रान्त होने से पूर्व प्रचलित वाङ्मय व्यवहार दूषित हो गया था। मातृगुप्त कहते हैं––'संस्कृत को कोई पूछता नहीं'। इधर मातृगुप्त के श्रीनगर छोड़ देने के बाद उनकी आराध्या-प्रणियिनी अनाशृत––और प्रदूषित हो गई––उसके उज्वल मुख पर मलिन छाया पड़ गई। मालिनी तो कोई ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं फिर मातृगुप्त की प्रणयिनी को मालिनी संज्ञा ही क्यों मिली?

वर्णों की संहति को वर्णमाला कहते हैं और वर्णों की प्राणसत्ता मातृकाओं में निहित है सुतरां वाग्रूपा भगवती की आख्या मातृका-मालिनी है उसी का बोध मालिनी शब्द के द्वारा भी होता है। काश्मीरिक साधन परम्परा में श्रीपूर्वशास्त्र अथवा पूर्वाम्नाय का विशिष्ट स्थान है उसमें वर्णमाला का क्रम भी सामान्य से कुछ भिन्न है 'नादि फान्ता च मालिनी' कहा गया है वर्णों का क्रम 'न' से आरम्भ होकर 'फ' पर समाप्त होता है। इसकी परम्परा को 'मालिनी मतम्' कहा गया है। यह उत्तर मालिनी क्रम है और पूर्व मालिनी क्रम वह है जो सामान्य व्यवहार की वर्णमाला है। उत्तर मालिनी की वर्ण व्यवस्था रहस्य साधन के न्यासक्रम में और उसकी विशिष्ट शाखा में ही व्यवहृत होती रही, सुतरां अन्यथा व्यवहार्य नहीं। मालिनी विजयोतरतन्त्र के परिचय में विद्वान मधुसूदन कौल कहते हैं––"Malini is of greatest utility in infusing devine life into the practisers."

तब, क्या आश्चर्य कि मातृगुप्त पूर्वाम्नाय के साधक रहे हों। उनकी प्रखर साधना का बल अवश्य निहित रहा अन्यथा वसुबन्ध के परमगुरु मनोरथ को शास्त्रार्थ में परास्त करना क्या शक्य था।

शारदा देश (काश्मीर) को जब हूणों ने पादाक्रांत कर दिया, ब्राह्मणों के विद्या-केन्द्र और साधकों के आश्रय मठों-मठिकाओं को उन्होंने उजाड़ दिया, बौद्ध-विहारों को ध्वस्त कर दिया तब शारदा देश की संस्कृति की चिताएं––मठों और विहारों में जलने लगीं। वहाँ से लोगों के सामूहिक पलायन हुए। मातृगुप्त का कथन है 'काश्मीर मंडल में हूणों का आतंक है, शास्त्र और संस्कृत विद्या को कोई पूछने वाला नहीं। म्लेच्छाक्रान्त देश छोड़कर राजधानी में चला आया––काश्मीर, जन्मभूमि,

X : प्रसाद वाङ्मय