पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९

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रहे। अन्यथा, उन अवान्तर कृतियों के प्रकल्पन का सम्भार, क्षीण होता जा रहा स्वास्थ्य एवं पैतृक व्यवसाय को संभाले रहने की चिन्ता––इन सभी का सन्तुलन, समन्वयन और यथा-नियुक्त का नियोजन––कैसे शक्य था? अस्तु। स्कन्दगुप्त और कामायनी में समस्वरता के स्थल सुधीजन देख सकते हैं।

स्कन्दगुप्त से सम्बन्धित दो शिलालेख महत्त्वपूर्ण हैं––एक जूनागढ़ का गुप्त संवत् १३६-१३३-१३८ (ईसवीय ४५५-४५८) का है जिसकी छठवीं पंक्ति में टंकित है 'स्वभुज जनितवीर्यो राजराजाधिराजः', फिर आगे हैं "पितरि सुरसखित्वं प्राप्त वत्वात्मशक्त्या'। ज्ञातव्य है कि अपने पिता के जीवन काल में जब वह दक्षिणी मालव से पश्चिमी सौराष्ट्र पर्यन्त के क्षेत्र में राज-प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त रहा तभी उसे पिता (कुमार गुप्त) के निधन और अनन्त देवी के षड्यन्त्र-पूर्वक अपनी माता के कारावास, पुरुगुप्त की हूणों से दुरभिसन्धि और मगध की दुरवस्था तथा चुपके-चुपके हूणों का बौद्ध स्थविरों की सहायता से उत्तरापथ में दूर तक प्रवेश के––चिन्ताजनक समाचार मिले और वह तत्काल मगध की ओर चल पड़ा। यदि उस समय वह यहाँ पहुँच कर हूण-निष्कासनार्थ युद्ध न करता तो पाटलिपुत्र का सिंहासन हूणों के वशवर्ती[१] पुरगुप्त से हूणों के हाथ लगने में बिलम्ब न होता। दूसरा भितरी (सैदपुर-गाजीपुर) का वह स्तंभ-लेख है जिसमें कहा गया है––'विचलित कुललक्ष्मी स्तंभनायोद्यतेन क्षितितल शयनीयेयेननीता त्रियामा'। फिर, 'हूणैर्यस्यसमागतस्य समरे दोर्भ्या धरा कम्पिता' 'जितामितिपरितोषान्मातरं सास्र-नेत्रां हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपेतः' (ईसवीय ४५५-४६७)।

जूनागढ़ स्तम्भ-लेख के 'स्वभुजजनितवीर्यो राज राजाधिराजः' से स्पष्ट होता है कि मालव-अवन्ति-सौराष्ट्र के क्षेत्र में अपने पुरुषार्थ से उसने शासन स्थापित किया था। किन्तु, उसी समय हूणों के कंटकशोधनार्थ उत्तरापथ को देखना पड़ा। भितरी का स्तम्भ हूण-प्रत्यावर्तन के स्थल की सूचना देता है। यही उसने यह संकल्प लिया कि जब तक भारत भूमि से हूणोच्छेद नहीं कर लूंगा शयनासन, धातुपात्र, भृत्यसेवा आदि से विरत रहूँगा। इसीलिए चटाई पर सोनेवाले अपने हाथ से पीने का पानी तुम्बी में भरकर लानेवाले स्कन्दगुप्त का वर्णन है। उसने मगध में कुसुमपुर पहुँच कर अपनी माता का उद्धार किया, पुरगुप्त को अनुशासित किया और शासन व्यवस्था, सैन्यसंगठन करके हूणों से युद्ध करके उन्हें कुभा के पार कर दिया। उसका निधन ४६७ ईसवीय में बताया जाता है। जिसके पूर्व उसने चाँदी के सिक्के ढलवाए, जिसमें से एक सिक्के का उल्लेख एलेन के कैटलाग में पृष्ठ १२२ पर ४५१ संख्या के अन्तर्गत है। इसमें अंकित है––'परम भागवत-श्री विक्रमादित्य-स्कन्दगुप्तः'। दक्षिण मालव-अवन्ति-सौराष्ट्र के क्षेत्र की व्यवस्था में जब वह लगा था––उसके पूर्व पुष्यमित्रों का दलन हो गया था। मध्य भारत की यह एक गणशासित दुर्द्धर्ष जाति

पुरोवाक् : IX

  1. अस्पष्ट शब्द।