पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय अy प्रथम दृश्य (चार सैनिक । राजपथ) १-- "क्योजी । यह क्या हुआ ! जिसके लिये गारा उत्पात और बखेड़ा हुआ वही नहीं। देवी राज्यश्री का पता ही नहीं है।" २-"भई इसमे महाराज के नये मित्र नरेन्द्र गुप्त की कोई चाल समझाई पडती है।" नही ती वह तो हम लोगो के साथ ही यहां आया। वह क्या कर सकता है। ४ "अजी यह बखेडा उसी लम्बी हॉक वाले विकटघोष का फैलाया हुआ है । वही नहीं दिखाई पडता। (मधुकर का प्रवेश) १-क्यो ब्राह्मण देवता? तुम्हारा क्या हुआ ? मधुकर -"भई ! दो हाथियो के लडने से बीच के रेड के वृक्ष की जो दशा होती है वही हुई।" २-"भला तुम कह सकते हो कि राज्यश्री कहाँ है ? हमलोग उन्हे खोजने के लिये भेजे जा रहे है। यार जो कही तुमने उताया और हम लोगों ने पता ठीक पाया..." ३-"तो फिर क्या पुरस्कार में आधा तुम्हारा।" मधुकर -"अजी प्राण बचे, फिर पुरस्कार देखा जायगा ?" ४-"भला कुछ बताओ तो ?" मधुकर-"मेग विश्वास है कि वही ले गया जिसने मेरे सिर पर चपत लगाया।" १-"वह कौन था?" मधुकर-"अजी उमका बडा विकट नाम था।" २--"विकटघोष तो नहीं।" मधुकर-"हां हां, ठीक, वही।" ३--"भई । चलो उमी को खोजा जाय । मधुकर तुम घबडाओ मत । महाराज गज्यवर्धन तुम्हे अवग छोड देंगे । पर देवगुप्त का निस्तार नहीं।" मधुकर-"भाई जो कुछ हो।" (प्रस्थान-पटपरिवर्तन) १०६ : प्रसाद वाङ्मय