पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१२१

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पूछो कि वह भस्म होने में अपना सौभाग्य समझता है या नहीं ? संसार के सुखी मनुष्यो ! तुम्हारा जीवन शुभ हो और भग्नहृदय मनुष्यो तुम्हें तुम्हारी मृत्यु चिन्ता शान्तिदायिनी हो । हा येही सैनिक है जो मरने का वेतन पाते हैं।" १-"श्रीमती ! चाहना दूसरी वस्तु है और मिल जाने पर उसका सहन करना या उसे भोगना भिन्न पदार्थ है। तुम उसकी आशा की कल्पना कर सकती हो जो कि अगाध समुद्र में डूबा हुआ, सामने के तिनके को एक बड़े वाम कासा सहारा देने वाला समझ कर पकडना चाहता है ? राज्यश्री-किन्तु उसमे भी तो पूछो जिसके नाक में जल आ गया है। जिसके भीतर के श्वास को बाहरी जल रोक देते है । जो बार बार उभचुभ हो रहा है।" (रणकोलाहल-विकटघोष का प्रवेश) नमकहरामो गप्प लगाने का तुम्हे यही ममय है जाओ शीघ्र युद्ध में जाओ, महाराज ने बुलाया है। मै, राज्यश्री को लेकर दूसरी जगह पर जाता हूँ। १-"जब तो आपके पास कोई आज्ञा पत्र अवश्य होगा। ऐसे हम लोग कैसे यहाँ मे म गकते है ? (एक उसको दबाता है । फिर आपस में इंगित करते हैं) तीनो-"महाशय । यह तो पागल है । आप क्या झूठ बोलेगे ! हम लोग जाते हैं । (स्वगत) किसी तरह बला छूटे । (चारों का प्रस्थान) विकटघोष (राज्यश्री को बन्धनमुक्त करता है) "भद्रे ! शीघ्र चलो, महाराज राज्यवर्धन ने भेजा है। आप मेरे साय चलिये।" राज्यश्री-"क्या ! भैय्या ने भेजा है ?" विकटघोप -"हां उन्होने कहा है कि युद्ध के और भी भीषण होने की सम्भावना है, इस कारण राज्यश्री को लेकर तुम सुरक्षित स्थान में चलो। राज्यश्री-'तो फिर शीघ्र चलो।" (दोनों का प्रस्थान । घबड़ाया हुआ देवगुप्त आता है। और दूसरी ओर से विजयी राज्यवर्धन का प्रवेश । युद्ध । देवगुप्त बन्दी होता है। राज्यवर्धन की विजय घोषणा) [पटाक्षेप राज्यश्री : १०५