(वेग से स्कन्दगुप्त का प्रवेश) स्कन्दगुप्त -"नरपिशाच ! ऐसे शोचनीय ममय मे वह कैसा स्वांग ?" नरेन्द्रगुप्त-(घबड़ा कर) 'मैने तो कुछ नहीं लिया।" स्कन्दगुप्त-"महाराज राज्यवर्धन की हत्या किसने की ? (तलवार निकाल कर) मच बता, प्रहरी ने तुझे ही उस समय महल से निकलते देखा है ? क्या तू वहाँ नही गया था ?" नरेन्द्रगुप्त--"मैं तो वहाँ देखने गया था।" स्कन्दगुप्त क्या | महाराज की हत्या ' दुष्ट शीघ्र बोल !" नरेन्द्रगुप्त -"नही, नही, मैने उन्हे नही मार।।" स्कन्दगुप्त- नही क्यो, तूही था।" नरेन्द्रगुप्त -“मैं था, नही, मैने नही, (चुप हो जाता है) स्कन्दगुप्त -"तू बात बनाता है अच्छा ले नीच, मेरी तो इच्छा होती है कि तेरा शरीर कुत्ते से नुचवा डालू किन्तु इममे देर होगी। तेरे बोझ मे पृथ्वी शीघ्र हलकी हो । मावधान हो जा। (स्कन्दगुप्त मारता है। नरेन्द्र गिरता है। सरला सभासद भयभीत । अन्धकार) (पट-परिवर्तन) तृतीय दृश्य (स्थान कानन । दिवाकर मित्र) दिवाकर -- 'ममार । क्षणिक मसार | तेरी महिमा अपरम्पार है। इस महाशून्य मे तेरा इन्द्रजाल फिमको भ्रान्त नही करता ) प्रपच दु ख से भरा होने पर भी जीव से न सहज मे नही छटता। अन्तरात्मा की शान्ति | आ, मेरे हृदय में शान्ति दे । करुणा | दम दु ग्वपूर्ण चरणी को अपन कोड म चिरकालिक विश्राम दे। शान्ति ! शान्ति ! शान्ति ।" (नेपथ्य में) "अब भी मान जा।" "नही ! नही ! मुझ दुखियारी को दुख न दे, इम विस्तीर्ण मंसार मे क्या सुख हई नही है ? क्या दया नाम मात्र को रह गई ? मनुष्य होकर हिंस्र पशुओ को मत लज्जित कर । मुझे छोड दे। मैं तेरे प्रेम के योग्य नही | इस श्मशान हृदय मे प्रेम की राख भी अब नही है। निर्दय | कोयला चबाकर तू क्या रम पावेगा? यदि तू क्रूर ही है तो मार ही क्यो नही डालता।" १०८: प्रसाद वाङ्मय
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