जय पतित-पावन नाम । जय प्रणत जन सुख धाम ॥ जय देव, धर्म स्वरूप । जय जय जगत्पति भूप ॥ (बालक का प्रवेश) "देवियो ! सावधान, महाराज हर्षवर्धन आते हैं ।" राज्यश्री-"कौन "(हर्ष का प्रवेश) भैया हर्ष... आवो. 'देखो अब तुम आ गये । सारा विषाद गया।" (सिंहनाद, और स्कन्दगुप्त का प्रवेश) हर्षवर्धन-"वहिन ! मैं आया तो, परन्तु तुम्हें देखकर विषाद और भी बढ़ गया। हा ईश्वर यह क्या देखता हूँ ? राजरानी भिक्षुनी हो रही है । हृदय ! और भी वज्र हो जा। प्रतिहिंसा में तूने दृढ़ होकर लाखो प्राणो का संहार किया है, पर इस करुण दृश्य को देखकर द्रवित न हो । वहिन ! मनुष्य जितना बदला ले सकता है उसे हमने लिया और जो मेरे अधिकार में नही था उसे ईश्वर पर छोड़ दिया। समग्र आर्यावर्त के नरपति और प्रजागण आज तुम्हारे चरणो मे प्रणत है। कान्यकुब्ज के आसन पर राजरानी होकर बैठो। यह भिक्षुनी का भेष छोड़ो।" राज्यश्री-"भाई यह तुमने क्या किया? एक जीव के बदले मे लाखो प्राणी का संहार करना कहाँ तक न्याय है ? हा ! तुमने घोर अनर्थ किया। रत्नजटित मुकुट क्या ईश्वर ने तुम्हे इसी लिये दिया था कि तुम लाखो का सिर पृथ्वी पर ठुकराओ ? हा ! क्या तुम भी निर्दय हो गये ? भला इसमे मुझे शान्ति मिली ? कहो, क्या मेरी ऐमी कितनी स्त्रियों को तुमने दुःखिनी नही बनाया ? क्या मेरे हृदय को शान्ति देने के लिये दुःखमय संसार की माया और नहीं बढ़ाई गई ? भैया ! तुम्हे क्या हो गया।" हर्षवर्धन-“वहिन, अवश्य यह मेरा भारी भ्रम था किन्तु अव उपाय क्या ?" स्कन्दगुप्त-"महाराज ! आर्यावर्त के सम्राट ! देवी बहुत ठीक कहेंगी। जो अब उनकी इच्छा हैं आप अवश्य पूरी कीजिये। (भण्डि का प्रवेश) भण्डि-"सम्राट की जय हो। विजित और उपहार के द्रव्य, महारानी के लिये जो आपने आज्ञा दी थी, प्रस्तुत है।" राज्यश्री--"भाई हम कहें ?" हर्षवर्धन-"जितनी विजित वस्तु है सब भूखे और कंगालों को बांट दी जायें। और मुझे अब इस आश्रम से और कही चखने के लिये मत कहो। कान्यकुब्ज को अपना प्रधान राजपुर वनाओ और शान्ति तथा न्यायपूर्वक प्रजा पालन करो।" ११२ प्रसाद वाङ्मय
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