सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(दूत का प्रणाम पूर्वक प्रस्थान) सिंहमाद- अव महाराज को भी शीघ्र ही राजकीय सिंहासन को सुशोभित करना चाहिये । या जैसी महाराज की इच्छा।" हर्षवर्धन- “थानेश्वर में जगन्नाथ शंकर की कृपा से शांति है, अब लगे हाथ इस विशाल साम्राज्य को और भी दृढ करके तब शान्तिमय सिंहासन पर बैठेंगे । जबतक इन शत्रुओं को पूर्ण प्रतिफल न देलेंगे तब तक सिंहामन ही कहाँ । थोड़ी सेना यहाँ छोडकर माधवगुप्त को यहाँ रहने दो। और तुम हमारे साथ सैनप होकर चलो। मौराष्ट्र विजय में सहायता करते हुए, अवन्ती पर अधिकार जमाते हुए, कान्यकुब्ज में सब से मिलेगे । (कुछ सोचकर) दूत को बुलाओ । (माधव का प्रस्थान । दूत के साथ प्रवेश) हर्षवर्धन-"क्योंजी भगिनी राज्यश्री का तो तुमने कुछ समाचार कहा ही नही।" दूत-"महाराज वह तो गंगा यमुना के संगम पवित्र तीर्थ प्रयाग में दिवाकर मित्र के संघाराम मे है । भण्डि और स्कन्दगुप्त ने बहुत समझाया किन्तु उन्होंने कहा "अभी हाँ मे कही न जाऊंगी।" वही पर, उन महात्मा के आश्रम में रहती है" हर्षवर्धन -"अच्छा जैसी उनकी इच्छा, इस कार्य को करके एक बार मैं भी चलकर उन्हे ले आने की चेष्टा करूंगा। जाओ।" (दूत का प्रस्थान । पटपरिवर्तन) पंचम दृश्य (दिवाकरमित्र का आश्रम । राज्यश्री भिक्षुनीवल) राज्यश्री-"अहा ! वहिनो, देखो, दया का स्वाभाविक योत करुणा वरुणालय ने इस दुःख दग्ध धरणी पर वहा दिया है। इन अनाथ, बिना माली के कोमल पादपों को किसकी करुणा धारा सीचती है ? दु खमय, क्षणभंगुर संसार हिसकी कृपा मे हरा भरा दिखाई देता है ? संमार केवल दुःखमय है सही, पर उसमे शान्ति करुगा सानुभूति किस दयामय की मृष्टि है ? बहिनो, आओ, वह शिव, विष्णु या बुद्ध जो कोई हो, उगके चरणों में प्रणाम करें।" (सब-गाती है) जय जयति करुणासिन्धु । जय दीन जन के बन्धु ।। जय-अखिल लोक ललाम । जय जय भुवन अभिराम ॥ राज्यश्री : १११