प्रवर्त्तित किया जिसमें सेना के सम्मुख बृहद्रथ का वध हुआ। हर्षचरित में इस घटना को वर्णित करते कहा गया है––
'प्रतिज्ञा दुर्बलं च बल दर्शन व्यपदेश दर्शिताऽशेष सैन्यः सेनानीरनार्यों मौर्यं बृहद्रथं पिपेश पुष्यमित्रः स्वाभिनम्।' किन्तु, पुष्यमित्र ने कभी अपने को दो अश्वमेध करने पर भी सम्राट् नहीं कहा––वह अपने पूर्व पद सेनानी से अधिक सन्तुष्ट रहा। कदाचित, उस अस्थिर राष्ट्र दशा में सिंहासन से अधिक महत्त्व सेना का रहा। अवन्ति के समीपवर्त्ती विदिशा में उसका वंशमूल था। संवत् १९६२-६३ से संस्कृत नाटकों और काव्यों का पूज्य पिताश्री का सँकलन है, उसमें विक्रमोर्वशीय की निर्णय सागर द्वारा १८९० ई॰ में मुद्रित प्रति के पृष्ठ संख्या १०३ पर उनके द्वारा रेखाकित संवाद इस प्रकार है––राजा––(उपविश्य सोपचारं गृहीत्वा वाचयति।) स्वस्ति यज्ञ शरणात्सेनापति पुष्यमित्रो वैदिशस्तत्रत्यमायुष्यन्तमग्निमित्रं स्नेहात्परिष्वज्येदमनुदर्शयति। विदितमस्तु। योऽसौ राजयज्ञदीक्षितेन मया राजपुत्र शत परिवृतं वसुमित्रं गोप्तारमादिश्य वत्सरोपात्त नियमो निरर्गलस्तुरंगो विसृष्टः, स सिन्धोर्दक्षिणरोधसि चरन्नश्वानीकेन यवनेन प्रार्थित। तत उभयो सेनयोर्महानासीत्संमर्दः।) इससे प्रत्यक्ष है कि प्रायः तीन दशक पूर्व शुंग काल के इस पुष्यमित्र-अग्निमित्र प्रसंग पर, अग्निमित्र-इरावती के लेखक का ध्यान जा चुका था।
अपनी पुरी यात्रा में भी खारवेल के हाथीगुम्फा (उदयगिरि) वाले गुहा लेख को भी १९३२ के जनवरी में उन्होंने मोमबत्ती जला-जलाकर ध्यान से देखा था। आशा है ये तथ्यपरक सूचनाएँ अध्येताओं के काम की होगी।
—– रत्नशंकर प्रसाद