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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६५

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[सुरमा के साथ सब विकट- -नृत्य करने लगते हैं। भिक्षु प्रार्थना करता है। अकस्मात् आँधी के साथ अन्धकार फैलता है। सब चिल्लाने लगते हैं-"दस्यु पति ! उस भिक्षु को छोड़ दो"। "उसी के कारण यह विपत्ति है," "छोड़ो उसे !"-प्रार्थना करते हुए सुएनच्वाङ्ग को सब धक्का देकर हटा देते हैं] [दृश्यान्तर] पंचम दृश्य - [दिवाकर मित्र का तपोवन-एक चिता सजी है] राज्यश्री -दु खो को छोड कर और कोई न मुझसे मिला, मेरा चिर महचर ! परन्तु अब उसे भी छोडूंगी। आर्य, मुझे आज्ञा दीजिये। स्त्रियो का पवित्र कर्तव्य पालन करती हुई इस क्षण-भगुर संसार से विदाई लूं - नित्य की ज्वाला से, यह चिता की ज्वाला प्राण बचावे । दिवाकरमित्र- देवि, मै यह कदापि नहीं कह सकता। यह धर्म नही, आत्महत्या है। सती होना जल मरने से ही नही हो सकता। यह नो मै नही कह सकता कि इम पुतले को बना कर दु ख का सम्बल देकर विधाता ने क्यो अनन्तपथ का यात्री बनाया, पर, इसमे इतना भयभीत क्यो रहूँ ? उस करुणानिधान की स्नेहानुभूति इसी मे तो झलकती है। प्राणी दु खो मे भगवान् के समीप होता है, देवि ! उमको." राज्यश्री -परन्तु अब इस हृदय मे बल नही है, महात्मन् । आज्ञा दीजिये । मेरे इस अन्तिम सुख मे बाधा न दीजिये--(प्रार्थना करती है) जय जयति करुणा-सिन्धु । जय दीनजन के बन्धु ॥ जय अखिल लोक ललाम । जय जय भुवन अभिराम ।। जय पतित पावन नाम । जय प्रणत जन सुख धाम॥ जय देव धर्म स्वरूप। जय जगत्पति भूप॥ [चिता प्रज्ज्वलित होती है। राज्यश्री का उसमें प्रवेश करने का उपक्रम । सहसा-'ठहरो-ठहरो!' का शब्द । वह दस्यु-जो भिक्षु हो गया था-दौड़ता हुआ आता है] जय राज्यश्री . १४९