पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६६

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राज्यश्री -अब क्या ? भिक्षु-सम्राट् हर्षवर्धन आ रहे है । राज्यश्री-कोन ? भैया हर्ष ? [हर्षवर्द्धन का प्रवेश राज्यश्री-आओ हर्ष ! इस अन्तिम समय मे तुम आ गये ! मेरा सारा विषाद चला गया। ? हर्षवर्द्धन-हे भगवान् ! मैं यह क्या देखता हूँ। प्रतिहिसा से प्रेरित होकर लाखों प्राणों का संहार करनेवाले हृदय, और भी वज्र हो जा ! बहन, मैने इतना रक्तपात किया, क्या इसीलिये कि राज्यश्री जल मरे और तना दृप्त राजचक्र फिर मेरी असफलता पर एक बार हंस दे ? उत्तरापथ के समस्त नरपति आज इन चरणो में प्रणत हैं। बहन ! यह मरण का समय नहीं है, चलो एक बार देखो कि तुम्हारे नीच शत्रुओं का क्या परिणाम हुआ। कान्यकुब्ज के सिंहामन पर वर्द्धनवश की एक बालिका उर्जस्वित शासन कर सकती है, यही तो मुझे दिखला देना था । राज्यश्री-भाई हर्ष, यह रत्नजटित मुकुट तुम्हे भगवान ने इसलिये नही दिया कि लाखों सिरों को तुम पैरो से टकराओ। मेरी शान्ति ढूंढकर तुमने उसे इतनी बडी नर-हत्या मे पाया ! हर्ष ! विचार करो, तुमने मेरे मदृश कितनी स्त्रियो को दुखिया बनाया ! तुम्हें क्या हो गया था ? हर्षवर्द्धन-(सिर नीचा करके) मेरा भ्रम था ! किन्तु अब राज्यश्री -अब मुझे आज्ञा दो कि मैं तुम्हारा प्रायश्चित करूं और सती धर्म का पालन भी। हर्षवर्द्धन-बहन ! हम लोग दो ही तो बचे है। भाई राज्यवर्द्धन की हत्या हुई, अब तुम भी जाना चाहती हो, मेरे वर्द्धन कुल की यह दशा | तो फिर यही हो राज्यश्री ! राज्यश्री-क्या भाई राज्यवर्द्धन भी नही रहे ? हर्षवर्द्धन-हाँ बहन ! जब उन्होने दुष्ट मालव को दण्ड देकर कान्यकुब्ज का उद्धार किया, उसी समय बन्धु नामधारी नरेन्द्र -नीच नरेन्द्र ने पड्यन्त्र से उनका प्राणनाश कराया ! आज तक भण्डि उसका पीछा कर रहे है, वह भाग रहा है । तो फिर मैं ही क्या करूंगा?-(दिवाकरमित्र से) आर्य ! मुझे भी काषाय दीजिये । राज्यश्री-(चिता से हट आती है)-भाई ! तुम भी...! नही, ऐसा नही होगा । मैं तुम्हारे लिए जीवित रहूंगी। मेरे अकेले भाई ! मुझे क्षमा करो, मै कठोर हो गयी थी। हर्षवर्द्धन-बहन ! इस इन्द्रजाल की महत्ता में जीवन कितना लघु है ! सब १५०:प्रसाद बाङ्मय