पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८५

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तृतीय दृश्य रसाल [स्थान-राज-सभा; महाराज नरदेव सिंहासनासीन हैं । नर्तकी नाचती और गाती है] कुञ्ज में वंशी बजती है ! स्वर में खिंचा जा रहा मन, क्यों बुद्धि बरजती है, सन्ध्या रागमयी-तानों का भूषण सजती है, दौड़ चलू, देखू लज्जा अब मुझको तजती है, कुञ्ज में वंशी बजती है ! नरदेव-वाह वाह ? कुछ और गाओ. [नर्तको नमस्कार करके फिर गाती है] आज मधु पी ले, यौवन वसन्त खिला ! शीतल निभृत प्रभात में, बैठ हृदय के कुञ्ज, कोकिल कलरव कर रहा, वरसाता सुख पुज, देख मञ्जरित हिला ? आज मधु पी ले, यौवन वसन्त खिला ? चन्दन-वन की छांह में, चलकर मन्द समीर, अब मेरा निःश्वास हो, करता किसे अधीर, मधुप क्यों मञ्जु आज मधु पी ले, यौवन वसन्त खिला ! नरदेव-प्रतिहारी ! इन्हें पुरस्कार दिलाओ। प्रतिहारी-जो आज्ञा । (नर्तकी जाती है) नरदेव -आज महापिंगल दिखाई नहीं देता है, कहाँ है ? सभासद-महाराज, आज उसके यहां प्रीति-भोज है । हम सबों का न्योता है। उसी में व्यस्त होगा। महापिंगल-(दौड़ा हुआ आता है)-दोहाई महाराज, झूठ बिल्कुल झूठ यह सब हमारा घर खा डालना चाहते है । लम्बी-चौड़ी प्रशंसा करके, तुम्हारे नाम जो है सो, सब खा गये । और न्योता सिर पर । हम बुलायें या नहीं, ये सब आप ही नाई बनकर अपने को न्योत लेते हैं। सभासद-पृथ्वीनाथ ! यह बड़ा कंजूस है । नित्य कहता है कि आज खिलायेंगे, कल खिलायेंगे, कभी इसने हाथ भी न धुलाया। महापिंगल-कोई है जी, लाओ पानी, इनका हाथ धुला दो, तनिक मुंह तो देखो, पहले उसे धो लो! कहीं से माल उठा लाये हैं, जो है सो तुम्हारे नाम, मुकुल से मिला? ! , विशाल: १६९