पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९५

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चन्द्रलेखा-इरावती बहिन है क्या? विशाख-मैंने तो एक दृष्टान्त दिया था। सचमुच तुम तो घबरा गई हो। अच्छा इस घबराहट ने ही मेरा काम कर दिया.. इरावती-(प्रवेश करते)-और इस बेचारी को बेकाम कर दिया। [चन्द्रलेखा लज्जित होती है] इरावती--चन्द्रलेखा ! बुआ इधर ही आ रही हैं । वह कुछ कहना चाहती हैं। [रमणी का प्रवेश रमणी -वत्स विशाख ! तुम दोनों का अनुराग देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई। भाई सुश्रवा भी आज ही कल में आने वाले है । राजा नरदेव ने उसकी सारी सम्पत्ति जो विहार से मिली है, लौटा दी है। (चन्द्र लेखा से)-बेटी चन्द्रलेखा, मैंने जो तुमसे कहा है उन बातों को कभी न भूलना। चन्द्रलेखा-बुआ ! आपकी शिक्षा मैं सादर ग्रहण करती हूँ। [रमणी जाती है। कुछ सखियां आती हैं] पहली-अरी चन्द्रलेखा ! तूने अपना ब्याह भी ठीक कर लिया, हम लोगों को पूछा तक नहीं। दूसरी-अरी वाह ! इसमें पूछने की कौन-सी बात है । ऐसा तो तू भी करेगी। तीसरी-अरी ! चल, क्या तेरी ही तरह सब हैं ? चौथी-तुम सव बड़ी पगली हो ! पहले अभी वर-वधू का स्वागत कर लो। आ इरावती, तू भी हम लोगों के संग आ। [विशाख और चन्द्रलेखा को घेर कर सब गाती और नाचती हैं] हिये में चुभ गयी, हाँ ऐसी भधुर मुसकान । लूट लिया मन, ऐसा चलाया नैन का तीर-कमान ॥ भूल गयी चौकड़ी, प्राण में हुआ प्रेम का गान । मिले दो हृदय, अमल अछूते, दो शरीर इक प्रान ।। दृश्यान्तर द्वितीय दृश्य [महापिंगल का घर] महापिंगल-कौन कहता है कि मैं नी । हूँ। प्रेम-रस यदि मेरे रोम-कूपों से निकाला जाय तो चार-चार रहट चलने लगें। अब मैं प्रेम करूंगा! प्रेम ! अच्छा तो किससे करूं, सोच-समझ कर करूं, जिसमें नाम हैसाई न हो। अच्छा वह जो उस . विशाख: १७९