चन्द्रलेखा-(बात काट कर) -बस, उसे हृदय से उठकर मस्तिष्क तक ही जाने दो, रसना पर लाने में रस नहीं है। विशाख-(व्याकुल होकर)-मैं कहूंगा- हृदय की सब व्यथायें मैं कहूँगा। तुम्हारी झिड़कियां सौ-सौ सहूंगा। मुझे कहने न दो, फिर चुप रहूँगा। तुम्हारी प्रेम धारा में बहूँगा। हृदय अपना तुम्हीं को दे दिया है। नहीं; तुमने स्वयं ही ले लिया है । चन्द्रलेखा- अब तुम्ही बताओ कि मैं क्या कहूँ ? मुझे तो तुम्हारी तरह कवितायें कण्ठस्थ नहीं ! हृदय के इस बनिज-व्यापार को में अच्छी तरह नहीं जानती। फिर भी. विशाल-फिर भी; फिर वही, उतना ही कह दो । चन्द्रलेखा-यही कि जब तुमसे बात-चीत होने लगती है तब मेरा मन न-जाने कंसा-कैसा करने लगता है । तुम्हारी सब बात स्वीकार कर लेने की इच्छा होती है । तो भी.. विशाख-तो भी ! फिर वही तो भी । अरे तो भी क्या ? चन्द्रलेखा-यही कि मुझे अपने बूढ़े वाप की गोद से छीन लिया चाहते हो- यह बड़ी भयानक बात है। विशाख-तो क्या मैं इतना निष्ठुर हूँ, मुझे तुम्हें कहीं लेकर चला जाना नही है । मैं तो केवल आज्ञा चाहता हूँ कि"" चन्द्रलेखा-(बात काट कर)-कि नहीं ! विशाख-तो अब मैं कुछ न कहूँ। (जाना चाहता है) चन्द्रलेखा-सुनो तो, कहां जा रहे हो ? विशाख–जहाँ भाग्य ले जावे । चन्द्रलेखा-तव तो तुम बड़े सीधे मनुष्य हो । अच्छा आओ चलो, उस कुंज से कुछ दाडिम तोड़ लें। विशाख-(गम्भीर होकर)-नहीं चन्द्रलेखा, परिहास का समय नहीं है । तुम देख रही हो कि समीप ही बड़ी गहरी खाई है और तुम अपनी सहारे की डोरी खींच लिया चाहती हो (सामने दिखाता है) चन्द्रलेखा-(घबरा कर उसे पकड़ लेती है)-हाँ हाँ, तो क्या तुम उसमें कूद पड़ोगे ! ऐसा न करना, मैं तुम्हारी हूँ। [नेपथ्य से "अन्त को तू गयो"] , १७८: प्रसाद वाङ्मय
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