पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९८

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तृतीय दृश्य [राजकीय उद्यान; नरदेव अकेला गाता है] छाने लगी जगत में सुषमा निराली । गाने लगी मधुर मंगल कोकिलाली ॥ फेला पराग, मलयानिल की बधाई । देत मिलिन्द कुसुमाकर की दुहाई ॥ (स्वगत) यह हृदय ही दूसरा हो गया है या समय ही। मन अकस्मात् एक मनोहर मूर्ति का एकान्त-भक्त होता जा रहा है। चित्त में अलस उदासी विचित्र मादकता फैला रही है। आप-ही-आप चुटीला मन और भी घायल होने के लिये ललच रहा है। कौन है ? प्रतिहारी ! [प्रतिहारी का प्रवेश प्रतिहारी-जय हो देव ! क्या आज्ञा है ! नरदेव-महापिंगल को शीघ्र बुलाओ। प्रतिहारी-जो आज्ञा पृथ्वीनाथ, मन्त्री महोदय बाहर खड़े हैं । नरदेव-नहीं समय नहीं है । कह दो फिर आवें । तुम जाओ। [प्रतिहारी सिर झुका कर जाता है] (स्वगत) जब चित्त को चैन नहीं, एक घड़ी भी अवकाश नही-शान्ति नही, तो ऐसा राज लेकर कोई क्या.करे; केवल अपना सिर पीटना है। वैभव केवल आडम्बर के लिये है। सुख के लिए नहीं। क्या वह दरिद्र किसान भी जो अपनी प्रिया के गले में बांह डाल कर पहाड़ी निर्झर के तट पर बैठा होगा, मुझसे सुखी नही है ? किसी भी देश के बुद्धिमान शान्ति के लिए सार्वजनिक नियम बनाते हैं, किन्तु वह क्या मबके व्यवहार में आता है ? जिम प्रतारणा के लिए शासक दण्ड- विधाता है, कभी उन्ही अपराधों को स्वयं करके दण्डनायक भी छिपा लेता है। धींगा-धींगी, और कुछ नहीं। राजा नियम बनाता है. प्रजा उसको व्यवहार में लाती है। उन्हीं नियमों में जनता बंधी रहती है। राजा भी अपने बनाये हुए नियमों में मकड़ी और जाला की तरह मुक्त नही, किन्तु, कभी-कभी उल्टा लटक जाता है। उस रमणी को बरजोरी अपने वश में करने के लिए जी मचल रहा है, किन्तु नीति ! नियम !! आह ! हमारा शासन मुझे ही बोझ हो रहा है, मन की यह उच्छृखलता क्यों है? महापिंगल-(प्रवेश करके)-क्यों क्या वह बन्दर भाग गया ? अरे कोई दूसरी सिकड़ी लाओ । नहीं तो अश्वशाला की रखवाली कौन करेगा ? १८२: प्रसाद वाङ्मय