पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१

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सज्जन नान्दी- [छप्पय] अजय किरातहिं देखि चकित ह के निज छन मैं । पूजन लाग्यो करन सुमन चुनि सुन्दर घन मैं ॥ लखि किरात के गले सोइ कुसुमन की माला । अर्जुन तब करि जोरि कह्यो अस कौन दयाला ॥ गुन गहत जोन शठता किये, सो क्षमहु नाथ वितरहु विजय । इमि प्रमुदित पूजित विजय, सो जयशंकर जय जयति जय ॥ [सूत्रधार आता है]] (चारो ओर देख कर)-अहा, आज कैसा मङ्गलमय दिवस है, हमारे प्यारे सज्जन की मण्डली बैठी हुई है, और सत्प्रबन्ध देखने की इच्छा प्रकट कर रही है । तो मैं भी अपनी प्यारी को क्यों बुलाऊँ। (नेपथ्य की ओर देख कर) प्यारी, अरी मेरी प्रानप्यारी! [नेपथ्य में से आती हुई] -क्या है क्या? सूत्रधार-यही है कि, जो है सो"(शिर खुजलाता है) नटी-कुछ कहोगे कि, केवल जो है सो। सूत्रधार-यह कि, तुम्हारा नाक-भौंह चढ़ाना देख कर हमारे चित्त में यह इच्छा होती है कि, कोई वीर-रस का अभिनय आज इन मज्जनों को दिखाऊँ, क्योंकि- सत्कविता हितकर वचन, सज्जनहीं के हेत। विधुलखि चन्द्रमणी द्रव, कांच ध्यान नहिं देत ॥ नटी तो कौन प्रबन्ध ? सूत्रधार-यह भी हमहीं से पूछोगी, हमने तो तुम्हीं से मंत्रणा करना विचारा था, क्योंकि- दुख में मित्र समान अरु गृह में गृहिणी होत । जीवन की सहचरी सो' रमणी रस की सोत ।। नटी- - १. शिष्या ललित कलान में