पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१४

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. - तरला-(आँख खोल कर) क्या देखा भगवन् ! भिक्षु-समुद्र की रेत की तरह ! तरला-क्या रेत की तरह ? भिक्षु-हां, रेत की तरह लम्बा-चौड़ा चमकता हुआ उज्ज्वल"" तरला-उज्ज्वल ! क्या उज्ज्वल ? भिक्षु-(क्रोध से) तेरा- --कपाल और क्या ? तरला - (पैर पकड़ कर)-खुल गये, भाग्य खुल गये । भिक्षु-(सिर हिलाता है)-खुल गये, अवश्य खुल गये। पर तू सब से कहेगी और मै तंग किया जाऊँगा। तरला-कभी नही, जो आज्ञा कीजिये। भिक्षु-(कड़क कर) -अच्छा तो ला फिर जो तेरे पास चॉदी-तांबा हो। तांबा-चाँदी हो जाय, चांदी सोना हो जाय -(ऐंठता हुआ)-चल तो स्वर्णयक्षिणी- हो देर न कर ! [तरला घर में जाकर गहने निकाल लाती है। भिक्षु उसे देखकर विचित्र चेष्टा करता है] भिक्षु-अच्छा, इचिलु, मिचिनु खिचिलु बयुजारे श्वयुनश्वे खिचिट खिचिट फट् स्वर्ण कुरु-कुरु स्वाहा -(गड्ढा दिखा कर) -रख दे इसी मे (रखने पर उसे ढंक देता है)-आँखे बन्द कर हाथ जोड -(तरला वैसे ही करती है। भिक्षु मन्त्र पढ़ता है, वह पढ़ती है) भिक्षु-अच्छा तो देख। तरला -देखू क्या, आँखें तो बन्द है, खोल दूं ? भिक्षु -न न न न न न, ऐसा न करना नही तो सब छू मन्तर ! तरला-तब क्या करूं? भिक्षु-सुन, जब तक हम देवता की पूजा करके ध्यान लगाते है, नैवेद्य चढ़ाते है, समझा न -बोलो कहो। तरला-बोलो कहो क्या कहूँ भिक्षु-चुप रहो, जो मै कहता हूँ वह । तरला-वही तो। भिक्षु-नैवेद्य लगाने पर सब एकदम छू मन्तर । तरला-सब एकदम छू मन्तर ! (सिर हिलाती है) [भिक्षु पूजा का ढोंग करता है । तरला ऑखे बन्द किये है। भिक्षु गड्ढे में से सब निकाल कर बाँधता है ] १९८: प्रसाद वाङमा