पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१३

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पौ। चलो अब तो पौ बारह है-भरा घड़ा मिला है ! चुप, क्या बकता है। अरे निर्भयानन्द, तुझे क्या हो गया है-(सोच कर)-हां यह यक्षिणी सोना बनाने वाली। आ तो इस टूटे-फूटे घर मे सोने की पाटी, पन्ने का पावा, चांदी की चूल्ही और मिट्टी का तावा ? अगड़-बगड़ रगड़-बगड़ साध तो झगड़-(तरला को आते देख आंख मूंद कर बैठ जाता है) [पोटली लिए हुए तरला का प्रवेश] तरला-लीजिये महाराज! यह भिक्षा प्रस्तुत है । दरिद्र की रूखी-सूखी ग्रहण कीजिये । जूठन गिरा कर मेरा घर पवित्र करिये । भिक्षु-(आँख खोलकर)-उपासिका ! तू आ गई । अहा, कमी पवित्र मूर्ति है ! तुझे शान्ति मिले। अरे यह क्या लायी, भिक्षा ? नहीं-नही, तू वडी दुखी है, मैं तेरी भिक्षा नही ग्रहण करूंगा। मै यो ही प्रसन्न हूँ।-(जाना चाहता है) -(स्वगत)-अहा कैसे महात्मा है--(प्रकट)-भगवान्, मुझसे अवश्य कोई अपराध हुआ, आप रूठे जाते है । दया कीजिये । क्षमा दीजिये । भिक्षु-नही नही, दरिद्र की भिक्षा सच्चे साधु नही लेते है । तुझे दुःख होगा, अपने के. १५., कोई-न-कोई भगवान् का भक्त मिल ही जायगा। मुझे समाधि में ज्ञात हुआ कि तुझे बडा कष्ट है। तरला-(रोने लगती है)-भगवान् यह क्या ! आप तो अन्तर्यामी है । आप सत्य कहते हैं-मैं सचमुच ही बडी दुखिया हूँ। अभी थोड़े दिन हुए, मेरे स्वामी किसी दुष्ट के हाथ मारे गये है, और मेरे लिये कुछ जीवन-वृत्ति भी नहीं छोड़ तरला- गये है। भिक्षु-(स्वगत)-मै जानता हूँ, तू महागिल की स्त्री है। उमी दुष्ट ने मेरी दुर्दशा करायी। राजा का सहचर ही था, बड़ा मालदार रहा है । अच्छा-- (प्रकट)-विचार था कि तुझे दु ख से बचा लें, किन्तु नही, मा करने से हम विरक्त लोगों को बड़े झगड़े में पड़ना पड़ता है -राब पीछे लग जाते है । -(सोचने का ढोंग करता है)-नही नही, फिर फिर भी दया आती है। तरला-भगवान्, दया कीजिये, मेरा उपकार कीजिये - मै दासी हूँ ! भिक्षु-एक बार दया कर देने से हल्ला मच जाता है, सभी तग करने लगते हैं कि मुझे भी धनी बना दो। किन्तु तुझ पर तो तरला-(स्वगत) -क्या यह सोना बनाना जानते है ? (प्रकट) फिर क्यों नही दया करते ! यह दुखिया भी सुखी होकर आपका गुण-गान करेगी ! भिक्षु-अच्छा, आँख मूंद कर हाथ जोड़, *भी देखू कि तेरा भाग्य कैसा है। -(तरला वैसा ही करती है)-इचिलु मिचिलु खिचिलु बयुजारे श्वयुनश्वे खिचिटि खिचिटि फट् (ठहरकर)-ठीक है, खोल दे आँख । विशाख : १९७