पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१६

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न्याय नरदेव - इतनी धृष्टता ! प्रहरी, ले जाओ इसे । चन्द्रलेखा-मुझे भी। नरदेव -(क्रुद्ध होकर)-दोनो को ले जाओ, शूली दे दो ! [बाहर कोलाहल होता है] नरदेव-देखो तो बाहर क्या है [एक बाहर जाकर देखकर आता है] दौवारिक-महाराजधिराज, नाग जाति की एक बडी जनता महाराज से प्रार्थना करने आई है। नरदेव-उसमे से थोडे लोग यहा आवे । (वौवारिक जाकर कुछ नाग सरदारों को ले आता है) नाग-न्याय नरदेव-कैसा आतक है | क्यो तुम लोग चिल्ला रहे हो? सुश्रवा-आपके सैनिको ने मेरी कन्या वन्द्रलेखा और जामाता पिशाख को अकारण पकड रखा है, उसे छोड दिजिये । नरदेव-उसने हत्या की थी। उसने अपराधो का विचार हुआ है कि वह देश से निकाला जाय । इसलिए तुम लोगो को अब उस विषय मे कुछ न बोलना चाहिए। नाग-रमणी-तो सारे सभासदो और नागरियो के मामने राजा । म तुम्हे अभियुक्त बनाती हैं। जो दोष कि एक निरपगव नागरिक को देश-निकाला दे सकता है वही अपराध देवू तो गत्ताधारी ग क्या कर सकता है ? क्या तुम चन्द्रलेखा पर आसक्त नही हो, और क्या तुमने एमन्त मे उसमे प्रणय-भिक्षा नही की थी? क्या तुम्हारी ओर से प्रेरित होवर महापिंग ा नही गया था? क्या आने पति को छोडकर चन्द्रलेखा से राजरानी बनने का घृणित प्रस्ताव नही रिया ? बोलो, उत्तर दो। नरदेव-अभागिनी । क्या तेरी मृत्यु निकट है ? क्या स्त्री होने की ढाल तुझे उससे बचा लेगी? अपनी जीभ रोक । चन्द्रलेखा 1-यह सब मत्य है कि राजा नरदेव मेरी प्रणय-कामना मे पड कर यह अनर्थ करा रहे है-धर्म की दुहाई जनता-अनर्थ । न्याय के नाम पर अत्याचार | | दमका सुविचार होना चाहिये। नरदेव-क्या तुम लोगो को कुछ विचार नही है कि हम न्यायाधिकरण के सामने है। जनता न्यायाधिकरण मे क्या अत्याचार ही होता है ? हम अन्यायपूर्ण आज्ञा नही मानेगे। २००: प्रसाद वाङ्मय