पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३१

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[अजात के सिर पर हाथ फेरती है] अजातशत्रु-नहीं मां, मैं तुम्हारे यहां न आऊँगा, जब तक पमा घर न जायगी। वासवी-क्यों! पद्मा तो तुम्हारी ही बहिन है । उमने क्या अपराध किया है ? वह तो बड़ी सीधी लड़की है। छलना-(क्रोध से)-वह मीधी और तुम भीधी ! आज से कभी कुणीक तुम्हारे पास न जाने पावेगा, और तुम यदि भलाई चाहो तो प्रलोभन न देना। वासवी-छलना ! बहिन ! यह क्या कह रही हो ? मेर। वत्स कुणीक ! प्यारा कुणीक ! हा भगवान ! मैं उसे देखने न पाऊँगी ? मेरा क्या अपराध ! अजातशत्रु-यह पद्मा, बार-बार मुझे अपदस्थ किया चाहती है, और जिस बात को मैं कहता हूँ उसे ही रोक देती है। वासवी-यह मैं क्या देख रही हूँ। छलना ! यह गृह-विद्रोह की आग तू क्यों जलाना चाहती है ? राज-परिवार मे क्या सुख अपेक्षित नहीं है-- बच्चे बच्चे से खेलें, हो स्नेह बढा उनके मन में, कुल-लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उसो जीवन में ! बन्धुवर्ग हों सम्मानित, हों सेवक सुखी, प्रणत अनुचर, शान्तिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्पृहणीय न हो क्यों घर ? छलना-यह सब जिन्हें खाने को नहीं मिलता, उन्हें चाहिये । जो प्रभु हैं, जिन्हे पर्याप्त है, उन्हे किसी की क्या चिन्ता -जो व्यर्थ अपनी आत्मा को दबावें। वासवी -क्या तुम मेरा भी अपमान किया चाहती हो ? पद्मा तो जैसी मेरी, वैसी ही तुम्हारी ! उसे कहने का तुम्हे अधिकार है । किन्तु तुम तो मुझ से छोटी हो, शील और विनय का यह दुष्ट उदाहरण सिखा कर बच्चों की क्यों हानि कर रही हो? छलना-(स्वगत)-मैं छोटी हूँ, यह अभिमान तुम्हारा अभी गया नही है । (प्रकट)-छोटी हूँ या बड़ी, किन्तु राजमाता हूँ। अजात को शिक्षा देने का मुझे अधिकार है। उसे राजा होना है। वह भिखमंगो का- जो अकर्मण्य होकर राज्य छोड़ कर दरिद्र हो गये है-उपदेश नही ग्रहण करने पावेगा। पद्मावती-मां अब चलो, यहाँ से चलो ! नही तो मैं ही जाती हूँ। वासवी-चलती हूँ बेटी ! किन्तु छलना-सावधान ! यह अमत्य-गर्व मानवसमाज का बड़ा भारी शत्रु है । [पनवती और वासवी जाती हैं] दृश्या न्त र अजातशत्रु : २११