पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३०

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समुद्रदत्त-देवि ! करुणा और स्नेह के लिये तो स्त्रियां हुई हैं, किन्तु पुरुष भी क्या वही हो जाय? पद्मावती-चुप रहो समुद्र ! क्या क्रूरता ही पुरुषार्थ का परिचय है ? ऐसी चाटूक्तियाँ भावी शासक को नहीं बनाती। [छलना का प्रवेश] छलना-पद्मावती ! यह तुम्हारा अविचार है। कुणीक का हृदय छोटी-छोटी बातों में तोड़ देना उसे डरा देना, उसकी मानसिक उन्नति में बाधा देना है। पद्मावती-मां, यह क्या कह रही हो ! कुणीक मेरा भाई है, मेरे सुखों की आशा है, मैं उसे कर्तव्य क्यों न बताऊँ ? क्या उसे चाटुकारों की चाल में फंसते देखू और कुछ न कहूँ ! छलना-तो क्या तुम उसे बोदा और डरपोक बनाना चाहती हो? क्या निर्बल हाथों से भी कोई राजदण्ड ग्रहण कर सकता है ? पद्मावती-मां क्या कठोर और क्रूर हाथो से ही राज्य सुशासित होता है ? ऐसा विष-वृक्ष लगाना क्या ठीक होगा? अभी कुणीक किशोर है, यही समय सुशिक्षा का है। बच्चों का हृदय कोमल थाला है, चाहे इसमे कटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों पौधे । अजातशत्रु -फिर तुमने मेरी आज्ञा क्यों भंग होने दी? क्या दूसरे अनुचर इसी प्रकार मेरी आज्ञा का तिरस्कार करने का साहस न करेगे? छलना-यह कैमी बात? अजातशत्रु-मेरे चित्रक के लिए जो मृग आता था, उसे ले आने के लिये लुब्धक रोक दिया गया। आज वह कैसे खेलेगा ? छलना पद्म ! तू क्या इसकी मंगल-कामना करती है ? इसे अहिंसा सिखाती है, जो भिक्षुओं की भद्दी सीख है ? जो राजा होगा, जिसे शासन करना होगा, उसे भिखमंगों का पाठ नही पठाया जाता। राजा का परम धर्म न्याय है, वह दण्ड के आधार पर है। क्या तुझे नही मालूम कि वह भी हिंसामूलक है ? पद्मावती-मां, क्षमा हो। मेरी समझ मे तो मनुष्य होना राजा होने से अच्छा है । छलना तू कुटिलता की मूर्ति है । कुणीक को आयोग्य शासक बनाकर उसका राज्य आत्मसात करने के लिए कौशाम्बी से आयी है । पद्मावती-मां ! बहुत हुआ, अन्यथा तिरस्कार न करो। मैं आज ही चली जाऊंगी! [वासवी का प्रवेश] वासवी -वत्स कुणीक ! कई दिनों से तुमको देखा नही । मेरे मन्दिर में इधर क्यो नही आये ? कुशल नो है ? २१०:प्रसाद वाङ्मय