पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३३

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वासवी-(प्रवेश करके) नाथ, मैं भी इससे सहमत हूँ। मैं चाहती हूं कि यह उत्सव देखकर और आपकी आज्ञा लेकर मैं कोसल जाऊँ। सुदत्त आज आया है, भाई ने मुझे बुलाया भी है। बिम्बिसार-कोन, देवी वासवी ! वासवी-हां महाराज! कंचुकी-(प्रवेश करके)-महाराज ! जय हो ! भगवान् तथागत गौतम आ रहे हैं। बिम्बिसार-सादर लिवा लाओ-(कंचुकी का प्रस्थान) छलना ! हृदय का आवेगा कम करो, महाश्रमण के सामने दुर्बलता न प्रकट होने पावे । [अजात के साथ गौतम का प्रवेश सब नमस्कार करते हैं] गौतम-कल्याण हो ! शान्ति मिले ! बिम्बिसार-भगवन्, आपने पधारकर मुझे अनुगृहीत किया। गौतम-राजन् ! कोई किसी को अनुगृहीत नहीं करता। विश्व भर में यदि कुछ कर सकती है तो वह करुणा ही है, जो प्राणिमात्र में समदृष्टि रखती है- गोधूली के राग-पटल में स्नेहांचल फहराती है। स्निग्ध उषा के शुभ्र गगन में हास-विलास दिखाती ।। मुग्ध मधुर बालक के मुख पर चन्द्रकान्ति बरसाती है निनिमेष ताराओं से वह ओस बूंद भर लाती है । निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से। मानव का महत्त्व जगती पर फैला अरुणा कणा से । बिम्बिसार-करुणामूर्ति ! से रंगी हुई वसुन्धरा आपके चरणों के स्पर्श से अवश्य ही स्वच्छ हो जायगी। उसकी कलंक-कालिमा धुल जायगी ! गौतम-राजन्, शुद्ध बुद्धि तो सदैव निर्लिप्त रहती है। केवल साक्षी रूप से सब दृश्य देखती है। तब भी, इन सांसारिक झगड़ों में उसका उद्देश्य होता है कि न्याय का पक्ष विजयी हो- यही न्याय का समर्थन है। तटस्थ की यही शुभेच्छा सत्त्व से प्रेरित होकर समस्त सदाचारों की नीव विश्व में स्थापित करती है। यदि वह ऐसा न करे, तो अप्रत्यक्ष रूप से अन्याय का समर्थन हो जाता है। -हम विरक्तों को भी इसीलिए राजदर्शन की आवश्यकता हो जाती है। बिम्बिसार-भगवान् की शान्तिवाणी की धारा प्रलय की नरकाग्नि को भी बुझा देगी। मैं कृतार्थ हुआ। छलना-(नीचा सर करके)-भगवन् ! यदि आज्ञा हो, तो मैं जाऊँ। गौतम-रानी ! तुम्हारे पति और देश के सम्राट् के रहते हुए मुझे कोई अधिकार नहीं है कि तुम्हें आज्ञा दूं। तुम इन्ही से आज्ञा ले सकती हो। . अजातशत्रु: २१३