पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३४

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बिम्बिसार-(घूमकर देखते हुए)-हो, छलने ! तुम जा सकती हो; किन्तु कुणीक को न ले जाना, क्योकि तुम्हारा मार्ग टेढ़ा है। [छलना का क्रोध से प्रस्थान] गौतम-यह तो मै पहले ही से समझना था, किन्तु छोटी रानी के साथ अन्य लोगों को विचार से काम लेना चाहिये । बिम्बिसार-भगवन् ! हम लोगो का क्या अविचार आपने देखा? गौतम - शीतल वाणी-मधुर व्यवहार से क्या वन्य पशु भी वश मे नही हो जाते ? राजन, संमार भर के उपद्रवों का मूल व्यंग है। हृदय में जितना यह घुसता है, उतनी कटार नहीं। वाक्-संयम विश्वमैत्री की पहली सीढ़ी है। अस्तु, अब मैं तुमसे एक काम की बात कहना चाहता हूँ। क्या तुम मानोगे क्यों महारानी? बिम्बिसार-अवश्य । गौतम-तुम आज ही अजातशत्रु को युवराज बना दो और इस भीषण-भोग से कुछ विश्राम लो। क्यों राजकुमार, तुम राज्य का कार्य मन्त्रि-परिषद् की सहायता से चला सकोगे। अजातशत्रु-क्यों नही, पिताजी यदि आज्ञा दे । गौतम-यह बोझ, जहाँ, तक शीघ्र हो, यदि एक अधिकारी व्यक्ति को सौप दिया जाय, तो मानव को प्रसन्न ही होना चाहिये, क्योकि राजन्, इससे कभी-न-कभी तुम हटाये जाओगे, जैसा विश्व भर का नियम है। फिर यदि तुम उदारता से उसे भोग कर छोड़ दो, तो इसमे क्या दु.ख ? बिम्बिसार-योग्यता होनी चाहिये महाराज ! यह बड़ा गुरुतर कार्य है । नवीन रक्त राज्यश्री को सदैव तलवार के दर्पण मे देखना चाहता है । गौतम-(हंसकर)-ठीक है। किन्तु, काम करने के पहले तो किसी ने भी आज तक विश्वस्त प्रमाण नही दिया कि वह कार्य के योग्य है । यह तुम्हारा बहाना राज्याधिकार की आकाक्षा प्रकट कर रहा है। राजन् ! समझ लो, इस गृह-विवाद और आन्तरिक झगड़ो से विश्राम लो। वासवी -भगवन् ! हम लोगो के लिए तो छोटा मा उपवन पर्याप्त है । मैं वही नाथ के साथ रहकर सेवा कर सकूँगी। विम्बिसार :-तब जैसी आपकी आज्ञा । (कंचुकी से) राज-परिषद् सभागृह में एकत्र हो; कंचुकी ! शीघ्रता करो। [कंचुकी का प्रस्थान दृश्या न्त र २१४: प्रसाद वाङ्मय