पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय वृश्ये [पथ में समुद्रवत्त और देवदत्त] देवदत्त -वत्स ! मैं तेरी कार्यवाही से प्रसन्न हूँ। हां, फिर क्या हुआ-क्या अजात का राज तिलक हो गया ? समुद्रदत्त-शुभ मुहूर्त में सिंहासन पर बैठना ही शेष है और परिषद् का कार्य तो उनकी देख-रेख में होने लगा। कुशलता से राजकुमार ने कार्यारम्भ क्यिा है, किन्तु गौतम यदि न चाहते तो यह काम सरलता मे न हो सकता। देवदत्त-फिर उसी ढकोसले वाले ढोंगी की प्रशंसा ! अरे समुद्र, यदि मैं इसकी चेष्टा न करता, तो यह सब कुछ न होता-लिच्छविकुमारी मे इतना मनोबल कहाँ कि वह यों अड़ जाती ! समुद्रदत्त-तो युवराज ने आपको बुलाया है, क्योंकि रानी वासवी और महाराज बिम्बिसार सम्भवतः अपनी नवीन कुटी मे चले गय होगे । अब यह राज्य केवल राजमाता और युवराज के हाथ में है। उनकी इच्छा है कि आपके सदुपदेश से राज्य गुशासित हो। देवदत्त-(कुछ बनता हुआ)-यह झंझट भला मुझ विरक्त से कहां होगा। फिर भी लोकोपकार के लिए तो कुछ करना ही पड़ता है । समुद्रदत्त-किन्तु गुरुदेव ! युवराज है बडा उद्धत, उमके संग रहने में भी डर मालूम पड़ता है। बिना आपकी छाया के मैं तो नही रह सकता। देवदत्त-वत्स समुद्र ! तुम नही जानते कि कितना गुस्तर काम तुम्हारे हाथ में है। मगध-राष्ट्र का उद्धार इस भिक्षु के हाथो से करना ही होगा। जब राजा ही उसका अनुयायी है, फिर जनता क्यों न भाड़ मे जाएगी। यह गौतम बड़ा ही कपट-मुनि है। देखते नहीं, यह कितना प्रभावशाली होता जा रहा है; नही तो मुझे इन झगड़ों से क्या काम ? समुद्रदत्त-तब क्या आज्ञा है ? देवदत्त-गौतम का प्रभाव मगध पर से तब तब नही हटेगा, जब तक बिम्बिसार राजगृह से दूर न जायगा। यह राष्ट्र का शत्रु गौतम समग्र जम्बूद्वीप को भिक्षु बनाना चाहता है और अपने को उनका मुखिया। इस तरह जम्बूद्वीप भर पर एक दूसरे रूप में शासन करना चाहता जीवक-(सहसा प्रवेश करके)-आप विरक्त है और मैं गृही। किन्तु जितना मैंने आपके मुख से अकस्मात् सुना है यही पर्याप्त है कि आपको रोककर कुछ कहूँ । संघभेद करके आपने नियम तोड़ा है, उसी तरह राष्ट्रभेद करके क्या देश का नाश करना चाहते हैं ? अजातशत्रु : २१५