पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३७

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अधिकार का ध्यान हो आता है। तुम्हे विश्वास हो या न हो, किन्तु कभी-कभी याचकों का लौट जाना, मेरी वेदना का कारण होता है। वासवी-तो नाथ ! जो आपका है वही न राज्य का है, उसी का अधिकारी कुणीक है, और जो कुछ मुझे मेरे पीहर से मिला है, उसे जब तक मैं न छोड़ें तब तक तो मेरा ही है। बिम्बिसार इसका क्या अर्थ है ? वासवी-काशी का राज्य मुझे, मेरे पिता ने, आँचल में दिया है, उसकी आप आपके हाथ मे आनी चाहिये मगध-साम्राज्य की एक कौडी भी आप न छुएं। नाथ ! मैं ऐसा द्वेष से नहीं कहती हूँ, किन्तु केवल आपका मान बचाने के लिये। बिम्बिसार-मुझे फिर उन्ही झगडो मे पडना होगा देवि, जिन्हें अभी छोड़ आया। [जीवक का प्रवेश जीवक--महाराज की जय हो ! बिम्बिसार--जीवक, यह कैसा परिहास ? यह सम्बोधन अब क्यो? यहाँ तुम कसे आये ? जोवक- क--यह अभ्यास का दोष है। मैं श्रीमान् के साथ ही रहूँगा; अब मुझे वह पुरानी गृहस्थी अच्छी नहीं लगती। बिम्बिसार--इस अकारण वैराग्य का कोई अर्थ भी है ? जीवक--कुछ नही राजाधिराज ! और है तो यही कि जिन आत्मीयों के लिए निष्कपट भाव से मैं परिश्रम करता हुआ उन्हे सुख देने का प्रबन्ध करता हूँ, वे भी विद्रोही हो जाते हैं। वासवी-महाराज, जीवन की सारी त्रियाओ का अन्त केवल अनन्त विश्राम मे है। इस वाह्य हलचल का उद्देश्य आन्तरिक शान्ति है, फिर जब उसके लिए व्याकुल पिपासा जग उठे, तब उसमे विलम्ब क्यो करे ? जीवक- यही विचार कर मैं भी स्वामी की शरण मे आया हूँ, क्योंकि समुद्रदत्त की चाले मुझे नही रुचती। अदृष्ट का आदेश जानकर मैं भी आपका अनुगामी हो गया हूँ। बिम्बिसार र--क्या अदृष्ट सोचकर, अकर्मण्य बनकर, तुम भी मेरी तरह बैठ जाना चाहते हो? जीवक--नही महाराज | अदृष्ट तो मेरा सहारा है। नियति की डोरी पकड़ कर मैं निर्भय कर्मकूप मे कूद सकता हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि जो होना है वह तो होगा ही, फिर कायर क्यो बनूं-कर्म से क्यो विरक्त रहूँ-मैं इस उछलल नवीन राजशक्ति का विरोधी होकर आपकी सेवा करने आया हूँ। अजातशत्रु : २१७