वासवी-यह तुम्हारी उदारता है, किन्तु हम लोगों को किस बात की शंका है जो तुम व्यस्त हो? जीवक-देवदत्त, निष्ठुर देवदत्त के कुचक्र से महाराज की जीवन रक्षा होनी ही चाहिये। विम्बिसार-आश्चर्य ! यह मै क्या सुन रहा हूँ ! जीवक ! मुझे भ्रान्ति मे न डालो-विष का घडा मेरे हृदय पर न ढालो। भला अब मेरे प्राण से मगध- साम्राज्य का क्या सम्बन्ध है ? देवदत्त मुझ मे क्यों इतना असन्तुष्ट है ? जोवक-बुद्धदेव की प्रतिद्वन्द्विता ने उसे अन्धा कर दिया है-महत्त्वाकांक्षा उसे एक गर्त मे गिरा रही है। उसकी वह आशा तब तक सफल न होगी, जब तक आप जीवित रहकर गौतम की प्रतिष्ठा बढ़ाते रहेगे और उनकी सहायता करते रहेगे। बिम्बिसार-मूर्खता, नही, नही, यह देवदत्त की क्षुद्रता है। भला आत्मबल या प्रतिभा किसी की प्रशंसा के बल मे विश्व मे खडी होती है ? अपना अवलम्ब वह स्वय है, इसमे मेरी इच्छा वा अनिच्छा क्या। वह दिव्य ज्योति स्वतः सबकी आँखो को आकर्षित कर रही है। देवदत्त का विरोध केवल उसे उन्नति दे सकेगा। जीवक-देव ! फिर भी जो ईर्ष्या की पट्टी आँखो पर चढ़ाये हैं, वे इसे नही देख सकते। अब मुझे क्या आज्ञा है, क्योकि यह जीवन अब आप ही की सेवा के लिए उत्सर्ग है। वासवी-जीवक, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारी सद्बुद्धि तुम्हारी चिर संगिनी रहे। महाराज को अब स्वतन्त्र वृत्ति की आवश्यकता है, अन काशी-प्रान्त का राजस्व, जो हमारा प्राप्य है, लाने का उद्योग करना होगा। मगध-साम्राज्य से हम लोग किमी प्रकार का सम्बन्ध न रखेगे। जीवक देवि ! इसके पहले एक बार मेरा कौशाम्बी जाना आवश्यक है। बिम्बिसार-नही जीवक | मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नही, अब वह राष्ट्रीय झगडा मुझे नही रुचता। वासवी । तब भी आपको भिक्षावृत्ति नही करनी होगी। अभी हम लोगों में वह त्याग, मानापमान-रहिन अपूर्व स्थिति नहीं आ सकेगी। फिर, जो शत्रु से भी अधिक घृणित व्यवहार करना चाहता हो, उसकी भिक्षावृत्ति पर अवलम्बन करने को हृदय नही कहता। जीवक-तो सुदत्त कोसल जा चुके है और कौशाम्बी में भी यह समाचार पहुंचना आवश्यक है। इसीलिये मैं कहता था, और कोई बात नहीं। काशी के दण्डनायक से भी मिलता जाऊंगा। बिम्बिसार-जैसी तुम लोगों की इच्छा। २१८: प्रसाद वाङ्मय
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