.... को निनिमेष देखने दो-एक अतीन्द्रिय जगत् की नक्षत्रमालिनी निशा को प्रकाशित करने वाले शरच्चन्द्र की कल्पना करता हुआ मैं भावना की सीमा को लांघ जाऊँ, और तुम्हारा सुरभि-निःश्वास मेरी कल्पना का आलिंगन करने लगे। मागन्धी-वही तो मैं भी चाहती हूँ कि मेरी मूर्च्छना मेरे प्राणनाथ की विश्वमोहिनी वीणा की सहकारिणी हो, हृदय और तन्त्री एक होकर बज उठे, विश्व- भर जिसके सम पर सिर हिला दे और पागल हो जाय । उदयन-हां, मागन्धी ! वह रूप तुम्हारा बड़ा प्रभावशाली था, जिसने उदयन को तुम्हारे चरणों में लुटा दिया (मद्यप की-सी चेष्टा करता है)-किसी को भेजो कि पद्मवती के मन्दिर से... मागन्धी--(दासी से)-आर्यपुत्र की हस्तिस्कन्ध-वीणा ले आओ। [दासी जाती है] उदयन-तब तक तुम्ही कुछ सुनाओ। [मागन्धी पान कराती है और गाती है] आओ हिये मे अहो प्राण 'यारे ! नैन भये निर्मोही, नही अब देखे बिना रहते है तुम्हारे । मवको छोड़ तुम्हे पाया है, देखू कि तुम होते हो हमारे । तपन बुझे तन की औ' मन की, हों हम-तुम पल एक न न्यारे । आओ हिये मे अहो प्राण प्यारे ! उदयन-हृदयेश्वरी ! कौन मुझसे तुमको अलग कर सकता है ? हमारे वक्ष में बनकर हृदय, यह छवि समायेगी। स्वयं निज माधुरी छवि का रमीला गान गायेगी । अलग तव चेतना ही चित्त में कुछ रह न जायेगी। अकेले विश्व-मन्दिर में तुम्ही को पूज पायेगी । मागन्धो- मैं दासी हूँ प्रियतम ! उदयन-नही, तुम आज से स्वामिनी बनो। [दासी वीणा लेकर आती है और उदयन के सामने रखती हैं, उदयन के उठाने के साथ ही साँप का बच्चा निकल पड़ता है-मागन्धी चिल्ला उठती है] मागन्धी-पद्मावती ! तू यहाँ तक आगे बढ़ चुकी है ! जो मेरी शंका थी, वह प्रत्यक्ष हुई। उदयन-(क्रोध से उठकर खड़ा हो जाता है)-अभी इसका प्रतिशोध लूंगा । ओह ! ऐसा पाखण्ड-पूर्ण आचरण ! अमह्य ! मागन्धी -क्षमा मम्राट् ! आपके हाथ में न्यायदण्ड है। केवल प्रतिहिंसा से २२२ : प्रसाद वाङ्मय
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