पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२४१

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प्यारे, निर्मोही होकर मत हमको भूलना रे बरसो सदा दया-जल शीतल, सिंचे हमारा हृदय-मरुस्थल, अरे केटीले फूल इसी में फूलना रे ! [नर्तकियाँ जाती है]] मागन्धी-- आर्यपुत्र ! क्या कई दिनों तक मेरा ध्यान भी न माया ? क्या मुझसे कोई अपराध हुआ था। उदयन- नहीं प्रिये ! मगध से गौतम नाम के महात्मा आये है, जो अपने को 'बुद्ध' कहते है । देवी पद्मावती के मन्दिर में उनका संध निमन्त्रित होता था और वे उपदेश देते थे। महादेवी वासवदत्ता भी वहीं नित्य आती थीं। मागन्धी-(बात काटकर) -तब फिर मुझे क्यों पूछा जाय ! उदयन-(आदर से)-नहीं-नहीं, यह तो तुम्हारी ही भूल थी, बुलवाने पर भी नहीं आयी । वाह ! सुनने के योग्य उपदेश होता था। अभी तो कई दिन होगा। हमने अनुरोध किया है कि वे कुछ दिनों तक ठहर कर कौशाम्बी में धर्म का प्रचार करें। मागन्धी-आप पृथ्वीनाथ हैं, आपको सब कुछ सोहाता है, किन्तु मैं तो अच्छी आँखों से इस गौतम को नहीं देखती। मगध के राजमन्दिर मे ही मुड़ियों का स्वांग अच्छा है। कौशाम्बी इस पाखण्ड से बची रहे तो बड़ा उत्तम हो। स्त्रियों के मन्दिर में उपदेश क्यों हो -क्या उन्हें पातिव्रत छोड़कर किसी और भी धर्म की आवश्यकता है ? (पान-पात्र बढ़ाती है) उदयन-ठहरो मागन्धी ! पुरुष का हृदय बड़ा सशंक होता है, क्या तुम इसे नहीं जानती? क्या अभी-अभी तुमने कुछ विषाक्त व्यंग नही किया है ? यह मदिरा अब मैं नही पीऊंगा। अभी आज ही भगवान् का इसी पर उपदेश हुआ है, पर मैं देखता हूँ कि मदिरा से पहले तुमने हलाहल मेरे हृदय मे उड़ेल दिया। यह व्यंग सूखे ग्रास की तरह नीचे भी नही उतरता और बाहर भी नही हो पाता। मागन्धी -क्षमा कीजिये नाथ ! मैं प्रार्थना करती हूँ, अपने हृदय को इस हाला से तृप्त कीजिये । अपराध क्षमा हो ! मैं दरिद्र-कन्या हूँ। मुझे आपके आने पर और किसी की अभिलाषा नहीं है । वे आपको पा चुकी हैं, अब उन्हें और कुछ की बलवती आकांक्षा है, चाहे लोग उसे धर्म ही क्यो न कहें । मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं। उदयन-हूँ, अच्छा देखा जायगा। (मुग्ध होकर) उठो मागन्धी, उठो ! मुझे अपने हाथों से अपना प्रेम-पूर्ण पात्र शीघ्र पिताओ, फिर कोई बात होगी (मागन्धी मदिरा पिलाती है) उदयन-(प्रेमोन्मत्त होकर)-तो मागन्धी, कुछ गाओ । अब मुझे मुखचन्द्र अजातशत्रु : २२१