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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५

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द्वितीय दृश्य [स्थान-द्वैत सरोवर। मृगया के वेश में दुर्योधन और कर्ण इत्यादि वाण धनुष पर चढ़ाए हुए एक मृग के पीछे चले आते हैं] दुर्योधन-(चारो ओर देखता हुआ) है ! मृग कहाँ भागा? मृग की बात कहाँ कही, वीर देखि डरि जात । अस्त्र मामुहे दृढ़ हृदय, किये कौन ठहरात ॥ दुःशासन- हाँ, हाँ, ठीक है ('मृग की बात' इत्यादि फिर से पढ़ता है) दुर्योधन - अहा हा ! यह स्थान भी कमा मनोरम है, मरोवर खिले हुए कमलों के पराग से सुरभित समीर इम वन्य प्रदेश को आमोदमय कर रहा है दुःशासन-नीलसरोवर बीच इन्दीवर अवली खिली। कर्ण-मनु कामिनि कचवीच, नीलम की वेदी लस ॥ दुर्योधन-जलमहँ परसि सुहात, कुसुमित शाखा तरुन की। दरसात, निज मुख चूमत कामिनी ॥ दुर्योधन-सारस की अवलीन में। नरपति के गोल, चक्रवति शकुनी--वाह ! अंगराज" ने तो आज उपमा की झड़ी लगा दी (कुछ सुनकर) वे कौन है। (नेपथ्य में से) यही है यही है (सब चकित होकर कर्ण-मनु दरपन करत फलोल, सारस कर्ण-मनु विहरण करै ।। ! देखते हैं) [यक्षगण की सेना का प्रवेश] सेनापति-तुम लोग यहां से शीघ्र चले जाओ। कर्ण-(तलवार पर हाथ रख कर) तू कौन है ? सेनापति-- मैं स्वामी के आज्ञानुसार शिष्टता के साथ कह रहा हूं, नहीं तो दूसरी प्रकार से आप लोगों का आदर किया जायगा। क्योंकि- राखि महामति को। शुचि बतावहिं नीति विधान को। प्रथम मान ११. अनंगराज सज्जन:९